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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक-२६८ प्रवृत्तिसामर्थ्य चेत्, फलेनाभिसंबंधः सजातीयज्ञानोत्पादो वा? प्रथमकल्पनायां किं तद्व्याप्तिफलं? सूर्यादिग्रहणानुमानमिति चेत्, सोऽयमन्योन्यसंश्रयः। प्रसिद्ध हि आगमस्य प्रामाण्ये ततो व्याप्तिग्रहादनुमाने प्रवृत्तिस्तत्सिद्धौ चानुमानफलेनाभिसंबंधादागमस्य प्रामाण्यमिति / सजातीयज्ञानोत्पादः प्रवृत्तिसामर्थ्यमिति चेत्, तत्सजातीयज्ञानं न तावत्प्रत्यक्षतोऽनुमानतो वा, अनवस्थानुषंगात्, तदनुमानस्यापि व्याप्तिग्रहणपूर्वकत्वात् / तद्व्याप्तेरपि तदागमादेव ग्रहणसंभवात्तदागमस्यापि सजातीयज्ञानोत्पादादेव प्रमाणत्वांगीकरणात् / . बाधकाभावः . पर इति चेत्, तर्हि स्वतोभ्याससामर्थ्यसिद्धाद्बाधकाभावात्प्रसिद्धप्रामाण्यादागमादकमालायाः सूर्यादिग्रहणाकारभेदेन व्याप्तिः परिगृह्यते न पुनः सूर्यादिग्रहणाकारभेद एव, इति मुग्धभाषितम् / ततो न विषमोऽयमुपन्यासो ___ यदि प्रथम कल्पना को स्वीकार करते हैं तो उस व्याप्ति का फल क्या है जिसके साथ व्याप्ति का सम्बन्ध किया जाता है? . यदि सूर्य, चन्द्र आदि के ग्रहण का अनुमान करना भी व्याप्ति का फल है, तब तो अन्योऽन्याश्रय दोष आता है। वह अन्योऽन्याश्रय दोष इस प्रकार है। आगम की प्रमाणता सिद्ध हो जाने पर प्रामाणिक आगम से व्याप्ति को ग्रहण कर सूर्यादिकों के ग्रहणों के आकार भेदों के अनुमान करने में प्रवृत्ति होगी। और अनुमान में प्रवृत्ति होना सिद्ध हो जाने पर व्याप्ति के अनुमान रूप फल के साथ सम्बन्ध हो जाने से प्रवृत्ति सामर्थ्य द्वारा आगम के प्रमाणता की सिद्धि होती है। यह अन्योऽन्याश्रय दोष आता है। यदि कहो कि प्रवृत्ति का सामर्थ्य है सजातीय ज्ञान का उत्पाद (उत्पन्न) होना। तो उस सजातीय ज्ञान का उत्पाद किस ज्ञान के द्वारा जाना जाता है? प्रत्यक्ष ज्ञान से जाना जाता है कि अनुमान ज्ञान से जाना जाता है? प्रवृत्ति के सामर्थ्य रूप सजातीय ज्ञान का उत्पाद प्रत्यक्ष ज्ञान के द्वारा. तो जाना नहीं जा सकता- क्योंकि वह प्रत्यक्ष ज्ञान का विषय नहीं है। अनुमानज्ञान से सजातीय ज्ञान का उत्पाद जाना जाता है- ऐसा भी नही कह सकते, इसमें अनवस्था दोष का प्रसंग आता है। क्योंकि वह अनुमान भी व्याप्तिग्रहण पूर्वक है। अर्थात् अनुमान भी व्याप्तिग्रहण के पीछे होता है। (व्याप्तिग्रहण पूर्वक होता है)। और उस व्याप्ति का ग्रहण भी आगम के द्वारा ही संभव है। और आगम की प्रमाणता सजातीय ज्ञान के उत्पाद से ही स्वीकार की गई है। इस प्रकार चक्रकगर्भित अनवस्था दोष आता है। भावार्थ- इस प्रकार अनुमान से भी सजातीय का ज्ञान नहीं हो सकता। यदि कहो कि आगम को परत:प्रमाण मानने में बाधा का अभाव है तब तो स्वतः अभ्यास के सामर्थ्य से प्रसिद्ध हुए बाधक अभाव वाले प्रसिद्ध प्रमाणीभूत आगम से अंकमाला की सूर्य, चन्द्र ग्रहण के आकार भेद के साथ व्याप्ति ग्रहण कर ली जाती है, किन्तु पुनः सूर्य और चन्द्र ग्रहणों के आकारों का भेद नहीं ग्रहण किया जाता है। इस प्रकार का कथन मुग्ध प्राणी ही कर सकता है, ज्ञानी नहीं। अर्थात् जैसे सूर्यादि ग्रहणों का ज्ञान आगम से होता है, वैसे ही उनके आकारों का भेद भी आगम से ही जाना जाता है। यह निश्चय करना चाहिए। सूर्य-चन्द्रग्रहणों को आगम से जानना स्वीकार करें- और उनके आकार-प्रकार-भेदों को आगम से जानना स्वीकार नहीं करें तो यह तो मूढ़ बुद्धि का कार्य है, विचारशील का नहीं। इसलिए अत्यन्त परोक्ष मोक्ष का
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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