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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 260 - न हि यत्र यस्य संप्रतिपत्तिस्तत्र तस्य प्रतिपित्सानवस्थानुषंगात्। संप्रतिपत्तिश मोक्षे स्वात्मोपलब्धिरूपे प्रकृतस्य प्रतिपाद्यस्य प्रायशः परिक्षीणकल्मषत्वात्, सातिशयप्रज्ञत्वाच्च / ततो न तदर्थिनोपि तत्र प्रतिपित्सा तदर्थत्वमात्रस्य तत्प्रतिपित्सया व्याप्त्यसिद्धेः। सति विवादेऽर्थित्वस्य प्रतिपित्साया व्यापकत्वमिति चेन्न, तस्यासिद्धत्वात् न हि मोक्षेऽधिकृतस्य प्रतिपत्तुर्विवादोस्ति। नानाप्रतिवादिकल्पनाभेदादस्त्येवेति चेत् प्रवादिकल्पनाभेदाद्विवादो योपि संभवी। स पुंरूपे तदावारपदार्थे वा न निवृतौ // 251 // स्वरूपोपलब्धिनिर्वृतिरिति सामान्यतो निर्वृतौ सर्वप्रवादिनां विवादोऽसिद्ध एव / यस्य तु स्वरूपस्योपलब्धिस्तत्र विशेषतो विवादस्तदावरणे वा कर्मणि कल्पनाभेदात् / तथाहि जिस विषय में जिसकी सम्प्रतिपत्ति है (जिसमें विवाद नहीं है) उस विषय में उसको जानने की इच्छा नहीं होती है। यदि ज्ञात विषय में भी फिर जानने की इच्छा होगी तो अनवस्था दोष आता है। सभी प्रकृत प्रतिपाद्य के यानी यहाँ प्रकरण से सम्बद्ध समझाने योग्य जीवों के, मिथ्यात्व कर्म का विनाश हो जाने से और सातिशय प्रज्ञा उत्पन्न हो जाने से (सम्यग्ज्ञान होने से) स्वात्मोपलब्धि रूप मोक्ष के स्वरूप में प्रायः सम्प्रतिपत्ति है (पूरी समझ है।) इसलिए मोक्ष के अभिलाषी जीव के भी मोक्ष की जिज्ञासा उत्पन्न नहीं होती है। किसी पदार्थ को प्राप्त करने की अर्थिता (इच्छा) मात्र से उसके ही जानने की अभिलाषा होने की व्याप्ति सिद्ध नहीं है। परन्तु उसकी प्राप्ति के उपायों को जानने की इच्छा के साथ व्याप्ति सिद्ध है। . मोक्ष के स्वरूप में विवाद नहीं, विवाद आत्मा के स्वाभाविक स्वरूप में अथवा मोक्ष को रोकने वाले पदार्थों में है यदि शंकाकार यों कहे कि प्राप्तव्य अर्थ के विषय में विवाद हो जाने पर उसके अर्थीपन का प्रतिपित्सा से (जानने की इच्छा के साथ) व्यापकत्व सिद्ध है, तो उसका ऐसा कहना भी उचित नहीं है क्योंकि प्रकरण को (मोक्षतत्त्व को) जानने की इच्छा की असिद्धि है। क्योंकि अधिकृत को यानी प्रतिपाद्यों को मोक्ष के स्वरूप में विवाद नहीं है। किसी ज्ञानी का विवाद नहीं है, सभी मोक्ष को स्वीकार करते हैं। नाना (सांख्य, नैयायिक, मीमांसक, वेदान्ती, बौद्ध आदि) प्रतिवादियों के द्वारा कल्पना-भेद से मोक्ष में विवाद है ही, ऐसा कहने पर जैनाचार्य कहते हैं अनेक प्रवादियों की कल्पनाओं के भेद से मोक्ष में जो भी विवाद संभव है, वह विवाद आत्मा के स्वाभाविक स्वरूप में है अथवा मोक्ष के आवरण करने वाले कर्म, अविद्या, मिथ्याज्ञान आदि पदार्थों में विवाद है, परन्तु स्वात्मोपलब्धि रूप मोक्ष के स्वरूप में कोई विवाद नहीं है॥२५१॥ स्व स्वरूप की उपलब्धि वा शुद्ध आत्मस्वरूप की प्राप्ति हो जाना ही मोक्ष है। इस प्रकार सामान्य रूप से मोक्ष के विषय में सर्व प्रवादियों का विवाद असिद्ध ही है अर्थात् कोई विवाद नहीं है। परन्तु मोक्ष में आत्मा को जिस स्वरूप की प्राप्ति होती है, उसमें विशेष रूप से विवाद है। तथा उस आत्मा के स्वरूप का आवरण करने वाले कर्मों के विषय में भी अनेक कल्पनाओं के भेद से विवाद है। इसी का जैनाचार्य कथन करते हैं
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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