SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 292
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 259 प्रयोजनाद्यभावेऽपि यथायोग्यं प्रतिपाद्यत्वप्रसिद्धस्तद्वानेव प्रतिपाद्यते / इति युक्तं परापरगुरूणामर्थतो ग्रंथतो वा शास्त्रे प्रथमसूत्रप्रवर्तनं, तद्विषयस्य श्रेयोमार्गस्य परापरप्रतिपाद्यैः प्रतिपित्सितत्वात् / ननु निर्वाणजिज्ञासा युक्ता पूर्व तदर्थिनः। परिज्ञातेभ्युपेयेऽर्थे तन्मार्गो ज्ञातुमिष्यते // 249 // - यो येनार्थी स तत्प्रंतिपित्सावान् दृष्टो लोके, मोक्षार्थी च कश्चिद्भव्यस्तस्मान्मोक्षप्रतिपित्सावानेव युक्तो न पुनर्मोक्षमार्गप्रतिपित्सावान्, अप्रतिज्ञाते मोक्षे तन्मार्गस्य प्रतिपित्साऽयोग्यतोपपत्तेरिति मोक्षसूत्रप्रवर्तनं युक्तं तद्विषयस्य बुभुत्सितत्वान्न पुनरादावेव तन्मार्गसूत्रप्रवर्तनमित्ययं मन्यते॥ तन्न प्रायः परिक्षीणकल्मषस्यास्य धीमतः। स्वात्मोपलब्धिरूपेऽस्मिन् मोक्षे संप्रतिपत्तितः // 250 // प्रतिपाद्यत्व सिद्ध होने से तत्त्वज्ञाता तत्त्व का प्रतिपादन करते हैं। अत: तत्त्व का जिज्ञासु ही प्रतिपाद्य (समझाने योग्य) होता है। इसलिए पर (उत्कृष्ट) गुरु अर्हन्तदेव ने और अपर गुरु गणधरदेव ने अर्थ की और ग्रन्थरचना की अपेक्षा शास्त्र की आदि में 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' इस सूत्र की रचना की है। यह युक्तिसंगत है। क्योंकि उन पर और अपर गुरुओं के द्वारा प्रतिपादित सूत्र के मोक्षमार्ग रूप विषय को समझने के लिये जिज्ञासा सिद्ध होती है अर्थात् किसी जिज्ञासु भव्य शिष्य के लिए आचार्यदेव ने मोक्षमार्ग का प्रतिपादन किया है। शंका- मोक्षमार्ग को प्राप्त करने के इच्छुक पुरुष को निर्वाण की जिज्ञासा उत्पन्न कराना उपयुक्त है। पुनः परिज्ञात अभ्युपेय अर्थ में (प्राप्त करने योग्य अर्थ को जान लेने पर) मार्ग को जानना इष्ट होता है॥२४९॥ - इस संसार में जो प्राणी जिस पदार्थ की अभिलाषा रखता है, वह उसको जानने की इच्छा वाला देखा जाता है। उसी प्रकार कोई आसन्न भव्य जीव मोक्ष का अभिलाषी है, इसलिए उसके मोक्ष के जानने की इच्छा होना युक्त ही है। परन्तु मोक्षमार्ग के जानने की इच्छा रखने वाला होना तो उचित नहीं है। क्योंकि मोक्ष को नहीं जानने पर (वा मोक्ष को नहीं जानने वाले के) मोक्षमार्ग को जानने की इच्छा की योग्यता ही नहीं बन सकती है। अर्थात् मोक्ष के स्वरूप को जाने बिना मोक्षमार्ग के जानने की अभिलाषा नहीं हो सकती। इसलिए शास्त्र के प्रारम्भ में मोक्ष के स्वरूप के प्रतिपादक सूत्र की रचना करना तो युक्तिसंगत है क्योंकि उस सूत्र से मोक्षरूपी विषय का जानना अभीष्ट है। परन्तु शास्त्र के प्रारंभ में मोक्षमार्ग के प्रतिपादक सूत्र की रचना करना युक्त नहीं है। इस प्रकार कोई मानते हैं। उत्तर- आचार्य समाधान करते हैं कि शंकाकार की यह शंका उचित नहीं है। क्योंकि जिसके कर्मों का भार कुछ क्षीण हो गया है, ऐसे बुद्धिमान शिष्य के शुद्धात्मोपलब्धि रूप इस मोक्ष के प्रति पूरी समझ है, सम्प्रतिपत्ति है॥२५० //
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy