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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 258 इति चेत्, तीव्युत्पन्नो विपर्ययस्तो . वा प्रतिपाद्यः संशयितवत् / तत्त्वप्रतिपत्तेरव्युत्पत्तिविपर्यासव्यवच्छे दरूपत्वस्य सिद्धेः संशयव्यवच्छे दरूपत्ववत् / संशयविपर्ययाव्युत्पत्तीनामन्यतमाव्यवच्छेदे तत्त्वप्रतिपत्तेर्यथार्थतानुपपत्तेः। यथा वाऽविद्यमानसंशयस्य प्रतिपाद्यस्य संशयव्यवच्छे दार्थं तत्त्वप्रतिपादनमफलं, तथैवाविद्यमानाव्युत्पत्तिविपर्ययस्य तद्व्यवच्छेदार्थमपि। यथा भविष्यत्संशयव्यवच्छेदार्थ तथा भविष्यदव्युत्पत्तिविपर्ययव्यवच्छेदार्थमपि। इति तत्त्वप्रतिपित्सायां सत्यां त्रिविधः प्रतिपाद्यः, संशयितो विपर्यस्तबुद्धिरव्युत्पन्नश। प्रयोजनशक्यप्राप्तिसंशयव्युदासतद्वचनवान् प्रतिपाद्य इत्यप्यनेनापास्तं / तत्प्रतिपित्साविरहे तस्य प्रतिपाद्यत्वविरोधात् / सत्यां तु प्रतिपित्सायां तत्त्व की प्रतिपत्ति करना ही संशय की निवृत्ति होना है-(संशय के व्यवच्छेद स्वरूप ही तत्त्व की प्रतिपत्ति है) इसलिये संशयालु पुरुष ही प्रतिपाद्य होता है। ऐसा कहने पर आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार तो संशयवान के समान अज्ञानी और विपरीत दृष्टि वाले भी प्रतिपाद्य हो सकते हैं। क्योंकि जैसे तत्त्वों की प्रतिपत्ति संशय दूर होना रूप है वैसे ही अज्ञान और विपर्यास दूर होना रूप भी तत्त्व की प्रतिपत्ति सिद्ध है। संशय, विपर्यय और अव्युत्पन्न (अनध्यवसाय) रूप अज्ञान तीन प्रकार का है। इन तीनों में से किसी एक का भी विनाश नहीं होने पर तत्त्वों की प्रतिपत्ति का यथार्थपना सिद्ध नहीं होता है। जैसे जिस शिष्य को संशय नहीं है उसके लिए संशय का व्यवच्छेद करने हेतु तत्त्व का प्रतिपादन करना निष्फल होता है, उसी प्रकार जिस शिष्य के अज्ञान और विपरीत ज्ञान नहीं है, उसके लिए भी अज्ञान और विपरीतता को दूर करने के लिए तत्त्व का निरूपण करना निरर्थक है। यदि कहो कि भाविकाल में होने वाले संशय का व्यवच्छेद करने के लिए संशयालु को तत्त्व का उपदेश दिया जाता है तब तो भाविकाल में होने वाले विपरीत ज्ञान और अज्ञान को दूर करने के लिए भी विपरीत ज्ञानी और अज्ञानी भी प्रतिपाद्य हो सकते हैं। उनके लिए भी तत्त्व का प्रतिपादन कर सकते हैं। अतः तत्त्व की जिज्ञासा (तत्त्वों को जानने की इच्छा) होने पर संशयालु, विपरीत बुद्धि और अव्युत्पन्न ये तीन प्रकार के शिष्य प्रतिपाद्य होते हैं अर्थात् ये तीन प्रकार के प्राणी वक्ता के द्वारा समझाने योग्य हैं। प्रयोजनवान और प्रयोजन वचनों को बोलने वाले, तत्त्वों को प्राप्त कर सकने वाले और तत्त्वप्राप्ति प्रमेय को वचनों के द्वारा कथन करने वाले एवं संशय को दूर करने वाले और संशय को दूर करने के वचन कहने वाले (अर्थात् 'हे गुरुदेव! मेरे इस संशय को दूर कीजिये', इस प्रकार अनुनय के वचन बोलने वाले) ही प्रतिपाद्य होते हैं। इस कथन का भी उपर्युक्त कथन से खण्डन हो जाता है। क्योंकि तत्त्वों को जानने की इच्छा के बिना उपर्युक्त तीन प्रकार के प्राणियों के प्रतिपाद्यत्व का विरोध है अर्थात् जिसको तत्त्व को जानने की जिज्ञासा उत्पन्न नहीं हुई है, उसके लिए तत्त्व का प्रतिपादन करना उपयुक्त नहीं है। तथा तत्त्वों को जानने की इच्छा होने पर तो प्रयोजन आदि के अभाव में भी यथायोग्य
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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