________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्त्तिक - 257 परैरनुमानाद्वास्य विकारादिलिंगजादाप्तोपदेशाद्वा तथा प्रतीतेः। संशयतद्वचनवांस्तु साक्षान्न प्रतिपाद्यस्तत्त्वप्रतिपित्सारहितस्य तस्याचार्य प्रत्युपसर्पणाभावात् / ___परंपरया तु विपर्ययतद्वचनवानव्युत्पत्तितद्वचनवान् वा प्रतिपाद्योस्तु विशेषाभावात् / यथैव हि संशयतद्वचनानंतरं स्वप्रतिबंधकाभावात्तत्त्वजिज्ञासायां कस्यचित्प्रतिपाद्यता तथा विपर्ययाव्युत्पत्तितद्वचनानंतरमपि। विपर्यस्ताव्युत्पन्नमनसां कुतशिददृष्टविशेषात्संशये जाते तत्त्वजिज्ञासा भवतीति चायुक्तं, नियमाभावात् / न हि तेषामदृष्टविशेषात्संशयो भवति न पुनस्तत्त्वजिज्ञासेति नियामकमस्ति। तत्त्वप्रतिपत्तेः संशयव्यवच्छेदरूपत्वात् संशयितः प्रतिपाद्यत _ संशयालु और संशयालु के वचनों को कारण मान कर तत्त्व का प्रतिपादन करना, अथवा संशयालु और उसके वचन प्रतिपाद्य हैं, ऐसा भी कहना उचित नहीं है। क्योंकि तत्त्व को जानने की जिज्ञासा से रहित पुरुष का आचार्य के समीप जाने का अभाव है। भावार्थ- प्रतिपाद्य (शिष्य) में साक्षात् कारण तत्त्व के जानने की इच्छा (अभिलाषा) है। यदि संशयालु के हृदय में तत्त्व के जानने की अभिलाषा है तो वह प्रतिपाद्य है। अपने वचनों के द्वारा संशय को कहने वाला भी प्रतिपाद्य है, परन्तु जिसके हृदय में तत्त्व को जानने की अभिलाषा ही नहीं ऐसा संशयवान् प्राणी गुरुजनों के समीप जाता ही नहीं है। अतः संशयालु और उसके वचन प्रतिपाद्य नहीं हैं। . यदि संशयालु और उसके वचनों को परम्परा से प्रतिपाद्य का कारण मानेंगे तो विपर्यय ज्ञानी और उसके वचनों के द्वारा विपरीत ज्ञान का करने वाला तथा अव्युत्पन्न (अज्ञानी) और अपने वचनों के द्वारा अज्ञान का निरूपण करने वाला भी प्रतिपाद्य हो जायेगा। क्योंकि 'संशय और संशयवान के वचन, विपरीत ज्ञान और विपरीत ज्ञानी के वचन और अव्युत्पन्न एवं अव्युत्पन्न के वचन' इन तीनों में विशेषता का अभाव है अर्थात् परम्परा से कारणता तीनों में समान है। जिस प्रकार संशय और उसके वचनों में उत्तरकाल में स्वकीय प्रतिबन्धक (ज्ञानावरण मोहनीयादि कर्मों) का अभाव हो जाने से तत्त्वजिज्ञासा उत्पन्न होने पर प्रतिपाद्यता आ सकती है अर्थात् किसी काल में मिथ्यात्व का मन्द उदय हो जाने से संशयालु और उसके वचन प्रतिपाद्य हो सकते हैं, उसी प्रकार विपर्यय, अव्युत्पन्न और उनके वचन भी उत्तरकाल में जिज्ञासा उत्पन्न होने पर प्रतिपाद्य हो सकते हैं क्योंकि इन तीनों में कोई अन्तर नहीं है। विपरीत ज्ञानी और अव्युत्पन्न (अज्ञानी) इन दोनों के किसी पुण्यविशेष से संशय के उत्पन्न हो जाने पर ही. तत्त्व की जिज्ञासा उत्पन्न होती है। अतः जिज्ञासा के पूर्ववर्ती संशय को कारण मान लो। विपर्यय और अज्ञान को कारण न मानो। ऐसा कहना भी युक्तिसंगत नहीं है। क्योंकि विपर्यय मति वाले और अव्युत्पन्न को संशय हो कर ही जिज्ञासा उत्पन्न होती है, इस प्रकार के नियम का अभाव है। विपर्यय ज्ञानी और अज्ञानी के अदृष्ट (पुण्य) विशेष से संशय तो उत्पन्न हो जावे परन्तु अनन्तर काल में जिज्ञासा नहीं होवे, ऐसा एकान्त ठीक नहीं है। परन्तु पुण्य विशेष से विपरीत दृष्टि वाले और अव्युत्पन्न को भी जिज्ञासा उत्पन्न हो सकती है और वे गुरुजनों का संसर्ग पाकर सम्यग्ज्ञानी बन जाते हैं।