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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 256 यथोक्तात्मा प्रतिपाद्यो महात्मनां, नातद्वान्नायथोक्तात्मा वा तत्प्रतिपादने सतामप्रेक्षावत्त्वप्रसंगात् / परमकरुणया कांशन श्रेयोमार्ग प्रतिपादयतां तत्प्रतिपित्सारहितानामपि नाप्रेक्षावत्त्वमिति चेन्न, तेषां प्रतिपादयितुमशक्यानां प्रतिपादने प्रयासस्य विफलत्वात्। तत्प्रतिपित्सामुत्पाद्य तेषां तैः प्रतिपादनात् सफलस्तत्प्रयास इति चेत्, तर्हि तत्प्रतिपित्सावानेव तेषामपि प्रतिपाद्यः सिद्धः / तद्वचनवानेवेति तु न नियमः, सकलविदां प्रत्यक्षत एवैतत्प्रतिपित्सायाः प्रत्येतुं शक्यत्वात्। 'जिज्ञासावान्' हेतु अनैकान्तिक है क्योंकि पक्ष (श्रेयोमार्ग) विपक्ष (कुमार्ग) दोनों में जाता है। ऐसा कहना भी युक्त नहीं है। क्योंकि पापमार्ग को जानने वाले में श्रेयोमार्ग को समझने रूप हेतु (धर्म) का अभाव है। अर्थात् हेतु में स्थित श्रेयोमार्ग को समझने रूप धर्म पापमार्ग को समझने वाले में घटित नहीं हो सकता। इसलिए 'जिज्ञासावान्' हेतु विरुद्ध हेत्वाभास भी नहीं है। क्योंकि मोक्षमार्ग की जिज्ञासा वाले जीव के, बिना दूसरों से मोक्षमार्ग को समझना कभी संभव नहीं है। अतः यह प्रमाणसिद्ध है कि श्रेयोमार्ग का जिज्ञासु और कालादि लब्धियों से युक्त ज्ञाता द्रष्टा आत्मा ही महात्माओं के द्वारा प्रतिपाद्य (समझाने योग्य) होता है। परन्तु जो मोक्षमार्ग का जिज्ञासु नहीं है अथवा तीव्र मिथ्यात्व से आक्रान्त है, विपरीत बुद्धि वाला है, उपर्युक्त गुणों से युक्त नहीं है, वह महात्माओं के द्वारा समझाने योग्य वा उपदेश का पात्र नहीं है। ऐसे विपरीत मोही अभव्य आत्माओं को प्रतिपादन करने पर (उनके प्रति तत्त्व का कथन करना, उनको समझाना आदि चेष्टा करने पर) महात्माओं के अविचारत्व का प्रसंग आता है। भावार्थ- जो पात्र-अपात्र का विचार न करके उपदेश देते हैं वे विचारशील नहीं होते हैं। तत्त्वजिज्ञासु प्रतिपाद्य है परम कारुण्य भाव से जिज्ञासा रहित किन्हीं जीवों के प्रति श्रेयोमार्ग का प्रतिपादन करने वाले गुरुजनों के विचारशील-रहितता (अविचारपने) का प्रसंग नहीं आता है। ऐसा भी कहना उचित नहीं है। क्योंकि जो समझने के लिए शक्य नहीं है (समझना नहीं चाहता है) उसके प्रति तत्त्व का प्रतिपादन करने में वक्ता के परिश्रम वा प्रयास की विफलता होती है अर्थात् जब श्रोता सुनने का इच्छुक ही नहीं है तो उसके लिए तत्त्व का प्रतिपादन करने वाले को व्यर्थ का परिश्रम करना है। ___यदि कहो कि जीवों को कल्याणमार्ग की जिज्ञासा उत्पन्न कराकर के उनके प्रति हितमार्ग का प्रतिपादन करने वाले गुरुजनों का प्रयास सफल हो जाता है, तब तो उन गुरुजनों के द्वारा मोक्षमार्ग का जिज्ञासु ही प्रतिपाद्य है, यह सिद्ध होता है। जिज्ञासा को वचन के द्वारा प्रकाशित करने वाला ही प्रतिपाद्य होता है, यह भी नियम ठीक नहीं है। क्योंकि केवलज्ञानी अपने प्रत्यक्ष ज्ञान के द्वारा इसकी यह जिज्ञासा है' इस प्रकार जानने में समर्थ हैं और दूसरे वक्ता वा आचार्य प्रतिपाद्य (शिष्य) के विकार, जानने की चेष्टा, प्रश्न पूछने के लिए आना आदि हेतुजन्य अनुमान से उसकी जिज्ञासा को समझ सकते हैं। अथवा आप्त के उपदेश से भी जिज्ञासाओं का जानना प्रतीत हो सकता है। अथवा आप्त के उपदेश से बिना कहे ही जिज्ञासु की जिज्ञासा शान्त हो जाती है।
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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