________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 261 प्रभास्वरमिदं प्रकृत्या चित्तं निरन्वयक्षणिकं, अविद्यातृष्णे तत्प्रतिबंधिके, तदभावान्निराम्रवचित्तोत्पत्तिर्मुक्तिरिति केषांचित्कल्पना। सर्वथा नि:स्वभावमेवेदं चित्तं, तस्य धर्मिधर्मपरिकल्पना प्रतिबंधिका, तदपक्षयात्सकलनैरात्म्यं प्रदीपनिर्वाणवत्स्वांतनिर्वाणमित्यन्येषां। सकलागमरहितं . परमात्मनो रूपमद्वयं, तत्प्रतिबंधिकानाधविद्या, तद्विलयात्प्रतिभासमात्रस्थितिर्मुक्तिरिति परेषां / चैतन्यं पुरुषस्य स्वं रूपं, तत्प्रतिपक्षः प्रकृतिसंसर्गस्तदपायात् स्वरूपेऽवस्थानं निःश्रेयसमित्यपरेषां। सर्वविशेषगुणरहितमचेतनमात्मनः स्वरूपं, तद्विपरीतो बुद्ध्यादिविशेषगुणसंबंधस्तत्प्रतिबंधकस्तत्प्रक्षयादाकाशवदचेतनावस्थिति: परा किन्हीं (सौत्रान्तिक बौद्धों) की कल्पना है कि विज्ञानस्वरूप आत्मा (चित्त) स्वभाव से अतीव प्रभास्वर (प्रकाशमान) है। परन्तु निरन्वय होकर क्षण-क्षण में नष्ट होता रहता है। अर्थात्- पूर्व समय का चित्त उत्तर समय में सर्वथा नष्ट हो जाता है और दूसरे समय में नवीन चित्त उत्पन्न होता है। स्वभाव से प्रकाशमान उस चित्त के प्रतिबन्धक अविद्या और तृष्णा हैं। उस अविद्या और तृष्णा का अभाव हो जाने पर निरास्त्रव चित्त की उत्पत्ति होती है। उसी का नाम मुक्ति है। यह शुद्ध विज्ञान स्वरूप चित्त सर्वथा नि:स्वभाव है, धर्म-धर्मी की परिकल्पना उस निःस्वभाव शुद्धचित्त की प्रतिबन्धिका है। तत्त्वज्ञान के द्वारा उस धर्म-धर्मी की कल्पना का ध्वंस (विनाश) हो जाने पर सम्पूर्ण स्वभावों के निषेध रूप अपने कल्पित धर्मों का नाश हो जाना ही मोक्ष है। जैसे दीपक के बुझ जाने पर दीपक की लौ किसी दिशा-विदिशा में न जाकर वहीं शान्त हो जाती है, उसी प्रकार आत्मा का नाश हो जाना ही मोक्ष है। यह अन्य (वैभाषिक बौद्धों) की कल्पना है। .. सम्पूर्ण आगम (शब्दयोजना) से रहित हो रहे परम ब्रह्म का स्वरूप अद्वैत है। उस अद्वैत स्वरूप की प्रतिबन्धक अनादिकालीन अविद्या है। उस अविद्या के नाश से चैतन्यरूप प्रतिभास मात्र स्थिति ही मुक्ति है। अर्थात् तब आत्मा परम ब्रह्म में लीन हो जाता है, उसी को मुक्ति कहते हैं। इस प्रकार अन्य वेदान्तवादियों का सिद्धान्त है। . पुरुष (आत्मा) का स्व स्वरूप चैतन्य है। उस चैतन्य स्वरूप का प्रतिपक्षी प्रकृति का संसर्ग है। उस प्रकृति के संसर्ग का नाश हो जाने से आत्मा का स्वकीय चैतन्य स्वरूप में अवस्थान हो जाना ही मुक्ति है। इस प्रकार अन्य (सांख्यों) का सिद्धान्त है। ___ सर्व विशेष बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, संस्कार, धर्म, अधर्म रूप नौ विशेष गुणों से रहित आत्मा का अचेतन हो जाना ही मोक्ष स्वरूप है। अर्थात् आत्मा के बुद्धि आदि नौ विशेष गुणों का नाश हो जाना ही आत्मा का स्वभाव है। उससे विपरीत बुद्धि आदि विशेष गुणों का सम्बन्ध आत्मा के स्वभाव का प्रतिबन्धक है। अर्थात् बुद्धि आदि नौ गुणों का आत्मा के साथ समवाय सम्बन्ध हो जाना ही मोक्ष की प्राप्ति का प्रतिबन्धक है।