________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 253 परिज्ञातसंशयोपि वचनात् प्रयोजनवान् प्रतिपाद्यो न स्वसंशयप्रकाशनमात्रेण विनिवृत्ताकांक्षः / प्रयोजनवचनवांश प्रतिपाद्यः, स्वप्रयोजनं वचनेनाप्रकाशयतः प्रयोजनवतोऽपि निशेतुमशक्यत्वात्। तथा जिज्ञासावान् प्रतिपाद्यः प्रयोजनवतो निश्चितस्यापि ज्ञातुमनिच्छतः प्रतिपादयितुमशक्यत्वात् / तद्वानपि तद्वचनवान् प्रतिपाद्यते, स्वां जिज्ञासा वचनेनानिवेदयतस्तद्वत्तया निर्णेतुमशक्तेः। तथा जिज्ञासुनिशितोऽपि शक्यप्राप्तिमानेव प्रतिपादनायोग्यस्तत्त्वमुपदिष्टं प्राप्तुमशक्नुवतः प्रतिपादने वैयात् / स्वां शक्यप्राप्ति वचनेनाकथयतस्तद्वत्तेन प्रत्येतुमशक्तेः शक्यप्राप्तिवचनवानेव प्रतिपाद्यः। तथा संशयव्युदासवान् प्रतिपाद्य का स्वरूप .. वचन से परिज्ञात संशय (जिसका संशय ज्ञात हो गया है ऐसा) भी शिष्य प्रयोजनवान होने पर ही प्रतिपाद्य होता है। अर्थात् वचन के द्वारा जिसका संशय ज्ञात हो गया है, ऐसा शिष्य भी यदि उसे किसी कार्य की सिद्धि का प्रयोजन है, तभी समझाया जावेगा। अपने संशय का प्रकाशन करने मात्र से जिसकी आकांक्षा-निवृत्ति हो गई है वह शिष्य गुरु के समझाने योग्य नहीं है। - प्रयोजनवान प्रतिपाद्य है। परन्तु अपने प्रयोजन को वचन के द्वारा प्रगट नहीं करने वाला प्रयोजनवान भी प्रतिपाद्य नहीं हो सकता। क्योंकि प्रयोजन का कथन किये बिना उसके अभिप्राय का निर्णय करना शक्य नहीं है अर्थात् प्रयोजनवान वचन ही प्रतिपाद्य है। तथा जिज्ञासु प्रतिपाद्य है। क्योंकि जिस शिष्य के प्रयोजन का निश्चय हो चुका है, परन्तु जिसके हृदय में तत्त्व को जानने की जिज्ञासा नहीं है, वह प्रतिपाद्य नहीं हो सकता। क्योंकि जो तत्त्व को जानना नहीं चाहता है, उसको समझाना शक्य नहीं है। जिज्ञासु पुरुष अपनी जिज्ञासा को गुरु के समक्ष प्रगट नहीं करता है, वह प्रतिपाद्य नहीं होता है। क्योंकि उसकी जिज्ञासा का निवेदन किये बिना जानना शक्य नहीं है। अत: जिज्ञासु होते हुए भी अपनी जिज्ञासा को वचन के द्वारा प्रगट करने वाला ही प्रतिपादन करने योग्य है। यह जिज्ञासु है और यह इसकी जिज्ञासा है, ऐसा निश्चय हो जाने पर भी जो शक्य प्राप्तिमान है अर्थात् उपदिष्ट पदार्थ की प्राप्ति की योग्यता धारण करता है वही प्रतिपाद्य है (समझाने योग्य है)। जो उपदिष्ट तत्त्व को प्राप्त (ग्रहण) नहीं कर सकता है, उसके लिए तत्त्व का प्रतिपादन करना व्यर्थ है। गुरु के द्वारा उपदिष्ट तत्त्व को प्राप्त (ग्रहण) करने में समर्थ है, परन्तु अपने सामर्थ्य का वचन के द्वारा प्रतिपादन नहीं कर रहा है, उसके सामर्थ्य को प्रतिपादक जान नहीं सकता है। जो शक्य-प्राप्तिमान है (अर्थ को ग्रहण करने में समर्थ है) ऐसा नहीं जाना गया है, वह शिष्य शिक्षण देने योग्य नहीं है अर्थात् बोलने की अवज्ञा से भयभीत शिष्य में उपदेश सुनने की योग्यता नहीं है। इसलिए उपदिष्ट पदार्थों की प्राप्ति के सामर्थ्य को वचनों से कहने वाला ही शिष्य प्रतिपाद्य (शिक्षा देने योग्य) है।