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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्त्तिक- 252 ननु च स्वप्रतिबंधकाधर्मप्रक्षयात्कालादिसहायादस्तु श्रेयःपथे जिज्ञासा, तद्वानेव तु प्रतिपाद्यते इत्यसिद्धं / संशयप्रयोजनजिज्ञासाशक्यप्राप्तिसंशयव्युदासतद्वचनवतः प्रतिपाद्यत्वात्। तत्र संशयितः प्रतिपाद्यस्तत्त्वपर्यवसायिना प्रश्नविशेषेणाचार्य प्रत्युपसर्पकत्वात्, नाव्युत्पन्नो विपर्यस्तो वा तद्विपरीतत्वाद्वालकवद्दस्युवद्वा। तथा संशयवचनवान् प्रतिपाद्यः स्वसंशयं वचनेनाप्रकाशयतः संशायितस्यापि ज्ञातुमशक्तेः। ___ भावार्थ- काल आदि बहिरंग कारणों के साथ भी जिज्ञासा का समीचीन व्यतिरेक बन जाता है, जो कि कार्य कारण भाव का प्रयोजक है इसलिये विपक्ष में वृत्तिपन के संशय और निश्चय करने से आने वाले व्यभिचार दोष यहाँ नहीं हैं। प्रतिपाद्य कौन ? __ शंका-स्वप्रतिबन्धक अधर्म का क्षय हो जाने से, काल लब्धि आदि की सहायता से कल्याण मार्ग में जानने की इच्छा हो सकती है परन्तु जानने की इच्छा वाला पुरुष ही उपदेष्टा के द्वारा प्रतिपादित किया जाता है, इस प्रकार कहना सिद्ध नहीं है। क्योंकि संशय, प्रयोजन, जानने की इच्छा, शक्य की प्राप्ति और संशय को दूर करना इनसे युक्त तथा इनके प्रतिपादक वचनों को बोलने वाला पुरुष ही प्रतिपादित किया जा सकता है। जो शिष्य संशयालु है, वही गुरुओं के द्वारा प्रतिपाद्य (समझाने योग्य) है। क्योंकि संशयालु पुरुष ही तत्त्व निर्णय कराने वाले विशेष प्रश्न से प्रतिपादक आचार्य के निकट जाता है। जो अज्ञानी, मूर्ख, व्युत्पत्ति रहित है वह प्रतिपाद्य नहीं हो सकता। तथा जो मिथ्या अभिनिवेश से विपरीत ज्ञानी हैं वे भी प्रतिपाद्य नहीं हैं। जो अज्ञानी है वह बालक के समान प्रतिपाद्य नहीं है और विपर्यय ज्ञानी है, वह चोर के समान प्रतिपाद्य नहीं है। अर्थात् अज्ञानी और विपरीत मानव तत्त्व के स्वरूप को समझ नहीं सकते हैं। जैसे अज्ञानी बालक और विपर्यय बुद्धि वाले चोर आदि तत्त्व को समझने का प्रयत्न नहीं करते हैं। इसलिये संशयालु प्रतिपाद्य है। संशय वचन वाले ही प्रतिपाद्य हैं, समझाने योग्य हैं। जो मानव अपने संशय को वचनों के द्वारा प्रगट नहीं कर रहा है, ऐसी अवस्था में संशय उत्पन्न पुरुष को प्रतिपादक जान नहीं सकता है। अतः अपने संशय को विनयपूर्वक कहने वाला शिष्य समझाने योग्य है अर्थात् संशयवचन प्रतिपाद्य हैं।
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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