________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 251 संशयप्रयोजनदुःखत्रयाभिघाताम्नायश्रवणेषु सत्स्वपि कस्यचित्तदभावादसत्स्वपि भावात् / कदाचित्संशयादिभ्यस्तदुत्पत्तिदर्शनातेषां तत्कारणत्वे लोभाभिमानादिभ्योऽपि तत्प्रादुर्भावावलोकनात्तेषामपि तत्कारणत्वमस्तु / नियतकारणत्वं तु तजनने बृहत्पापापायस्यैवांतरंगस्य कारणत्वं बहिरंगस्य तु कालादेरिति युक्तं, तदभावे तजननानीक्षणात् / कालादि न नियतं कारणं बहिरंगत्वात् संशयलोभादिवदिति चेन्न, तस्यावश्यमपेक्षणीयत्वात्, कार्यांतरसाधारणत्वात्तु बहिरंगं तदिष्यते, ततो न हेतोः साध्याभावेऽपि सद्भाव: संदिग्धो निश्चितो वा, यतः संदिग्धव्यतिरेकता निशितव्यभिचारिता वा भवेत्। मीमांसकों आदि के द्वारा कथित संशय, प्रयोजन, शारीरिक, मानसिक आदि तीन दुःखों का अभिघात (नाश), आम्नाय-श्रवण आदि हेतु में अन्वय-व्यतिरेक नहीं होने से ये हेतु व्यभिचार दोषों से दूषित हैं। क्योंकि किसी पुरुष के संशय, प्रयोजन तथा त्रय दुःखों से ताड़न और वेदवाक्य के वाच्य अर्थों का श्रवण, मनन और धारण होने पर भी श्रेयोमार्ग की जिज्ञासा उत्पन्न नहीं होती है (यह अन्वयव्यभिचार है) तथा किसी पुरुष के संशय, प्रयोजन, त्रयदुःखताड़न, वेद वाक्यार्थ श्रवण, मनन, धारण करनादि कारणों के नहीं होने पर भी श्रेयोमार्ग की जिज्ञासा की उत्पत्ति देखी जाती है। यह व्यतिरेक व्यभिचार है। . यदि आप कहें कि कदाचित् संशय आदिक कारणों के होने पर भी धर्मजिज्ञासा की उत्पत्ति देखी जाती है, अतः संशय आदि को धर्मजिज्ञासा की उत्पत्ति का कारण मानते हैं। तब तो लोभ, अभिमान, ईर्षा आदि कारणों से भी धर्म-जिज्ञासा का प्रादुर्भाव देखा जाता है इसलिये लोभ-ईर्षा आदि को भी धर्मजिज्ञासा की उत्पत्ति का कारण मानना चाहिए? धर्मजिज्ञासा (श्रेयोमार्ग की जिज्ञासा) की उत्पत्ति में संशय, प्रयोजन, दुःखत्रयाभिघात और वेदवाक्यार्थ-श्रवण, मनन, अवधारण आदि अनियत कारण हैं, नियत कारण नहीं हैं। (जिसके होने पर कार्य अवश्य हो और जिसके अभाव में कार्य न हो वह नियत कारण कहलाता है।) श्रेयोमार्ग की जिज्ञासा की उत्पत्ति का अंतरंग नियत कारण बृहत् पाप (मिथ्यात्व) का अपाय (नाश) है। अर्थात् श्रेयोमार्ग की जिज्ञासा की उत्पत्ति का अंतंरंग कारण दर्शनमोहनीय का क्षय, उपशम और क्षयोपशम है। और बहिरंग कारण काललब्धि आदि है। यह कथन ही युक्तिसंगत है। मिथ्यात्व रूप पाप के अपाय के अभाव में तथा कालादि लब्धि के अभाव में श्रेयोमार्ग की जिज्ञासा की उत्पत्ति नहीं देखी जाती है। .. संशय, लोभ आदिक के समान बाह्य कारण होने से काललब्धि आदि भी श्रेयोमार्ग की जिज्ञासा की उत्पत्ति में नियत कारण नहीं हैं, ऐसा भी नहीं कहना चाहिए। क्योंकि श्रेयोमार्ग की जिज्ञासा की उत्पत्ति में काललब्धि आदि निमित्त कारणों की अवश्य ही अपेक्षा होती है। दूसरे कार्यों में भी तो साधारण होने से इनको बहिरंग कारण कहते हैं। इसलिए साध्य के नहीं रहने पर भी हेतु के सद्भाव का सन्देह वा निश्चय नहीं है। अर्थात् साध्य के अभाव में हेतु के सद्भाव का सन्देह नहीं है, जिससे व्यतिरेक व्यभिचार वा संशय हो सके। तथा साध्य के न रहने पर हेतु के सद्भाव का निश्चय भी नहीं है जिससे कि निश्चय से व्यभिचार दोष आता हो।