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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 254 प्रतिपाद्यः सकृत्संशयितोभयपक्षस्य प्रतिपादयितुमशक्तेः। संशयव्युदासवानपि तद्वचनवान् प्रतिपाद्यते, किमयमनित्यः शब्दः किं वा नित्य इत्युभयोः पक्षयोरन्यतरत्र संशयव्युदासस्यानित्यः शब्दस्तावत्प्रतिपाद्यतामिति वचनमंतरेणावबोद्धुमशक्यत्वादिति केचित्। तान् प्रतीदमभिधीयते। तद्वानेव यथोक्तात्मा प्रतिपाद्यो महात्मनाम्। इति युक्तं मुनींद्राणामादिसूत्रप्रवर्तनम् // 248 // यः परतः प्रतिपाद्यमानश्रेयोमार्गः स श्रेयोमार्गप्रतिपित्सावानेव, यथातुरः सद्वैद्यादिभ्यः प्रतिपद्यमानव्याधिविनिवृत्तिजश्रेयोमार्गः परतः प्रतिपद्यमानश्रेयोमार्गश विवादापत्रः कश्चिदुपयोगात्मकात्मा भव्य इति / अत्र न धर्मिण्यसिद्धसत्ताको हेतुरात्मनः श्रेयसा ___ तथा अपने संशय को दूर करने वाला मानव ही समझाने योग्य है। परन्तु जिसने एक समय में दोनों ही पक्षों का संशय कर रखा है, वह समझाया नहीं जा सकता। अतः संशय-व्युदास (स्वकीय . संशय को दूर करने वाला) ही प्रतिपाद्य होता है। संशयव्युदास भी जब वचनों के द्वारा स्वकीय संशय के दूर करने का वचन बोलता है, तभी प्रतिपाद्य है, अन्यथा नहीं। जैसे शब्द नित्य है? अथवा अनित्य है? इन दोनों पक्षों में से किसी एक. पक्ष में संशय को दूर करने के लिए पहले आप शब्द की अनित्यता का प्रतिपादन कीजिये। इस प्रकार के वचन का उच्चारण किये बिना आचार्य उसके अभिप्राय को समझ नहीं सकते। इसलिए संशयव्युदास वचन वाला प्रतिपाद्य है। इस प्रकार संशय-संशय वचन, प्रयोजन -प्रयोजन वचन, जिज्ञासाजिज्ञासावचन, शक्यप्राप्ति शक्यप्राप्तिवचन', संशयव्युदास और संशयव्युदासवचन। इन दस धर्मों से युक्त शिष्य ही गुरु के द्वारा समझाने योग्य है, ऐसा कोई कहता है। उसके प्रति जैनाचार्य उत्तर देते हैं, उसकी शंका का समाधान करते हैंकल्याणमार्ग का इच्छुक प्रतिपाद्य है ___ उपर्युक्त दस गुणों से विशिष्ट, कल्याण मार्ग का इच्छुक, उपयोगात्मक आत्मा ही महान् आत्माओं के द्वारा प्रतिपाद्य (समझाने योग्य) है। इसलिए परमैश्वर्य के धारक गणधरदेव ने तथा गृद्धपिच्छ आचार्य ने 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' इस सूत्र की प्रवर्त्तना (रचना) की है, वह युक्तिसंगत है।।२४८॥ जो भव्य प्राणी दूसरों के द्वारा प्रतिपद्यमान मोक्षमार्गवाला (गुरु के समीप मोक्षमार्ग को सुन रहा है) है वह मोक्षमार्ग का जिज्ञासु अवश्य है। जैसे रोगी श्रेष्ठ वैद्य, मंत्रवित्, तांत्रिक आदि के द्वारा प्रतिपादित व्याधि की निवृत्ति से उत्पन्न श्रेयोमार्ग (रोगदुःखनिवृत्ति) का इच्छुक होता है अर्थात् रोगी कल्याण मार्ग का जिज्ञासु अवश्य होता है। उसी प्रकार विवादापन्न कोई उपयोग स्वरूप भव्यात्मा दूसरों (मुनीन्द्रों) के द्वारा प्रतिपादित श्रेयोमार्ग का जिज्ञासु है। (मुनीन्द्र के द्वारा प्रतिपाद्य श्रेयोमार्ग वाला उपयोगात्मक भव्यात्मा है- अचेतन प्रधान आदि प्रतिपाद्य नहीं होते हैं)। इस अनुमान के पक्ष में (धर्म में) असिद्ध सत्ता वाला हेतु है- (हेतु असिद्ध हेत्वाभास है) ऐसा नहीं कह सकते हैं। क्योंकि श्रेयोमार्ग
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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