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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक-२४७ पुरुषो हि स्वातिशयैः संबध्यमानो यदि नानास्वभावै: संबध्यते, तदा तैरपि संबध्यमानः परैर्नानास्वभावैरित्यनवस्था। स तैरेकेन स्वभावेन संबध्यते इति चेत् न, अतिशयानामेकत्वप्रसंगात्। कथमन्यथैकस्वभावेन क्रियमाणानां नानाकार्याणामेकत्वापत्तेः पुरुषस्य नानाकार्यकारिणो नानातिशयकल्पना युक्तिमधितिष्ठेत् / स्वातिशयैरात्मा न संबध्यत एवेति चासंबंधे तैस्तस्य व्यपदेशाभावानुषंगात् / स्वातिशयैः कथंचित्तादात्म्योपगमे तु स्याद्वादसिद्धिः। इत्यनेकांतात्मकस्यैवात्मनः श्रेयोयोक्ष्यमाणत्वं न पुनरेकांतात्मनः, सर्वथा विरोधात् / कालादिलब्ध्युपेतस्य तस्य श्रेयःपथे बृहत् / पापापायाच्च जिज्ञासा संप्रवर्तेत रोगिवत् // 247 // _ वह आत्मा अनेक अतिशयों को धारण करने वाले अनेक स्वभावों के साथ एक ही स्वभाव से सम्बन्ध कर लेता है, ऐसा भी कहना उचित नहीं है। क्योंकि अनेक स्वभावों से रहने वाले उन अनेक अतिशयों का और स्वभावों के एकपने का प्रसंग आयेगा। अन्यथा (ऐसा स्वीकार नहीं करेंगे तो) एक स्वभाव द्वारा किये गये नाना कार्यों के भी एकपने की आपत्ति हो जाने से नाना कार्य करने वाले पुरुष के नाना अतिशयों की कल्पना करना कैसे युक्तिसंगत होगा? . भावार्थ- जैसे आत्मा एक स्वभाव से अनेक अतिशयों को धारण कर लेता है, वैसे आत्मा एक स्वभाव से अनेक कार्यों को भी कर लेगा। परन्तु जैन सिद्धान्त 'यावन्ति कार्याणि तावन्तः स्वभावभेदाः।' जितने कार्य होते हैं उतने ही स्वभाव भेद होते हैं, ऐसा मानता है और यह प्रतीति युक्त भी है। (आप सांख्य) यदि अपने भिन्न अतिशयों के साथ आत्मा सम्बन्ध ही नहीं करता है, इस कारण उन स्वभाव और अतिशयों के साथ उस आत्मा का सम्बन्ध नहीं मानोगे तो 'ये अतिशय आत्मा के हैं' इस व्यवहार के अभाव हो जाने का प्रसंग आता है। यदि उन स्वकीय ज्ञानादि अतिशयों के साथ कथंचित् तादात्म्य सम्बन्ध स्वीकार करते हो तो स्याद्वाद सिद्धान्त की ही सिद्धि होती है। अत: अनेक धर्मात्मक आत्मा का ही भविष्य में मोक्षमार्ग में लगना सिद्ध हो सकता है। पुनः सर्वथा क्षणिक वा सर्वथा कूटस्थ नित्य मानने वाले एकान्तवादियों के श्रेयोमार्ग को प्राप्त करना सिद्ध नहीं हो सकता है क्योंकि सर्वथा एकान्त में अर्थक्रिया का विरोध है। मोक्षमार्ग की जिज्ञासा कालादि लब्धि (काललब्धि, आसन्नभव्यता, कषायों की मन्दता) आदि कारणों से युक्त आत्मा के महान् पापों का अपाय हो जाने से (अशुभ कर्मों के अनुभाग की हानि हो जाने पर वा कर्मों की स्थिति के अन्त:कोटा कोटी प्रमाण हो जाने पर) श्रेयोमार्ग के जानने की इच्छा प्रवृत्त होती है। जैसे रोगी के तीव्र पाप का क्षय होने से रोग की चिकित्सा की जिज्ञासा उत्पन्न होती है।॥२४७॥ .
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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