________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्त्तिक - 248 श्रेयोमार्गजिज्ञासोपयोगस्वभावस्यात्मनः श्रेयसा योक्ष्यमाणस्य कस्यचित्कालादिलब्धौ सत्यां बृहत्पापापायात् संप्रवर्तते श्रेयोमार्गजिज्ञासात्वात् रोगिणो रोगविनिवृत्तिजश्रेयोमार्गजिज्ञासावत् / न तावदिह साध्यविकलमुदाहरणं रोगिणः स्वयमुपयोगस्वभावस्य रोगविनिवृत्तिजश्रेयसायोक्ष्यमाणस्य कालादिलब्धौ सत्यां बृहत्पापापायात् संप्रवर्तमानायाः श्रेयोजिज्ञासायाः सुप्रसिद्धत्वात् / तत्तत एव न साधनविकलं श्रेयोमार्गजिज्ञासात्वस्य तत्र भावात्। निरन्वयक्षणिकचित्तस्य संतानस्य प्रधानस्य वाऽनात्मनः श्रेयोमार्गजिज्ञासेति न मंतव्यमात्मन इति वचनात्तस्य च साधितत्वात् / जडस्य चैतन्यमात्रस्वरूपस्य चात्मनः सेत्यपि न शंकनीयमुपयोगस्वभावस्येति प्रतिपादनात् / तथास्य समर्थनात् / निःश्रेयसेनासंपित्स्यमानस्य तस्य सेति च न चिंतनीयं, श्रेयसा योक्ष्यमाणस्येति निगदितत्वात् / तस्य तथा व्यवस्थापितत्वात् / उपयोग स्वभाव वाले और मोक्षमार्ग में लगने वाले किसी आत्मा के काललब्धि, देशनालब्धि आदि के प्राप्त होने पर तथा मोहनीय कर्मादि महान् पापों के क्षय, उपशम या क्षयोपशम होने पर . मोक्षमार्ग को जानने की अभिलाषा उत्पन्न होती है। जैसे रोगी के रोगनिवृत्ति (कुछ असाता वेदनीय का उपशम) होने पर रोगनिवृत्ति रूप कल्याणमार्ग को जानने की अभिलाषा उत्पन्न होती है। इस अनुमान में दिया गया यह दृष्टान्त साध्यविकल (साध्य से रहित भी) नहीं है। क्योंकि स्वयं उपयोग (ज्ञान) स्वभाव तथा रोगनिवृत्ति से उत्पन्न श्रेयोमार्ग के साथ भविष्यत्काल में युक्त होने वाले रोगी के कालादिलब्धि (काललब्धि, साता वेदनीय कर्म का उदय, आयुष्य कर्म आदि की प्राप्ति) होने पर तथा असाता वेदनीय स्वरूप महान् पापकर्म का नाश होने पर कल्याणमार्ग (रोगनिवृत्ति-कारणों के निवृत्ति मार्ग) को जानने की इच्छा होना सुप्रसिद्ध ही है। तथा यह दृष्टान्त साधनविकल भी नहीं है। क्योंकि रोगी के कल्याणमार्ग की इच्छा में कल्याणमार्ग का जिज्ञासापन (साधन) विद्यमान है। निरन्वय (अन्वयरहित मूल से) क्षण-क्षण में नष्ट होने वाले चित्त के तथा उत्तरक्षण के भेद का स्पर्श नहीं करने वाले चित्तसंतान के और जड़ स्वरूप रजोगुण, तमोगुण, सत्त्वगुण रूप त्रिगुणात्मक प्रधान (प्रकृति) के मोक्षमार्ग की जिज्ञासा उत्पन्न होती है ऐसा नहीं समझना चाहिए। क्योंकि ये तीनों जड़ स्वरूप हैं और मोक्षमार्ग की जिज्ञासा आत्मा के ही उत्पन्न होती है। यह आप्तकथित आगम का वचन है। तथा आत्मद्रव्य की सिद्धि पूर्व में कर दी गई है। ज्ञान से भिन्न (नैयायिक) जड़ स्वरूप आत्मा के, वा ज्ञान पराङ्मुख (वैशेषिक) चैतन्य स्वरूप आत्मा के मोक्षमार्ग की जिज्ञासा उत्पन्न होती है, ऐसी शंका भी नहीं करनी चाहिए। क्योंकि अनुमान में ज्ञानदर्शनोपयोगमय आत्मा के ही मोक्षमार्ग की जिज्ञासा का प्रतिपादन किया गया है। अर्थात् मोक्षमार्ग की जिज्ञासा उपयोग स्वभाव वाले आत्मा के ही उत्पन्न होती है। तथा उस आत्मा को युक्तियों से सिद्ध कर दिया है। विशेषार्थ- आत्मा सामान्य-विशेष धर्मात्मक है। आत्मा का दर्शन उपयोग सामान्य रूप से पदार्थों का संवेदन करता है, और ज्ञान विशेष रूप से वेदन करता है। ये ज्ञान दर्शन दोनों आत्मा के स्वात्मभूत परिणाम हैं।