________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक-२४६ पुरुषात्मकत्वे वा तयोः प्रधानपरिकल्पनं। तथाविधस्य चासतः प्रधानस्य गगनकुसुमस्येव न श्रेयसा योक्ष्यमाणता / पुरुषस्य सास्तु इति चेन्न, तस्यापि निरतिशयस्य मुक्तावपि तत्प्रसंगात् / तथा च सर्वदा श्रेयसा योक्ष्यमाण एव स्यात्पुरुषो न चाऽऽयुज्यमानः। पूर्वं योक्ष्यमाणः पश्चात्तेनायुज्यमान इति चायुक्तं, निरतिशयैकांतत्वविरोधात् / स्वतो भिन्नरतिशयैः सातिशयस्य पुंसः श्रेयसा योक्ष्यमाणता भवत्विति चेन्न, अनवस्थानुषंगात्। भावार्थ- कर्त्तापना और भोक्तापना एक ही द्रव्य में पाये जाते हैं। अतः प्रकृति और आत्मा में से एक ही तत्त्व मानना चाहिये, आत्मा मानना तो अत्यावश्यक है। क्योंकि आत्मा की सर्व प्राणियों को प्रतीति हो रही है। इसलिये इस प्रकार तथाविध असत् प्रधान की कल्पना करना आकाश के फूल के समान श्रेयोमार्ग में युक्त होना बन नहीं सकता है। ____ कल्याणमार्ग की अभिलाषा पुरुष के ही होती है, ऐसा एकान्त मानना भी उचित नहीं है। क्योंकि ऐसा मानने पर तो सदा कूटस्थ नित्य आत्मा के और मुक्तावस्था में भी श्रेयोमार्ग की अभिलाषा का प्रसंग आयेगा। क्योंकि आत्मा तो मुक्तावस्था में भी है। तथा च, सर्वदा मोक्षमार्ग की अभिलाषा होने से सदा मोक्षमार्ग में लगा ही रहेगा, कभी बिना लगे नहीं रहेगा यदि आत्मा परिणमनशील हो। किसी पर्याय की अपेक्षा उत्पाद व्यय होता है और द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा नित्य हो- तब आत्मा के श्रेयोमार्ग में लगने वा नहीं लगने की सिद्धि होती है, अन्यथा नहीं। " पूर्व अवस्था में आत्मा श्रेयोमार्ग से भावीयुक्त होने वाला है- और पश्चात् वर्तमान में श्रेयोमार्ग से संयुक्त हो जाता है, यह कहना भी युक्तिसंगत नहीं है। क्योंकि निरतिशय (कूटस्थ, नित्य) एकान्त आत्मा में भूत में युक्त के सन्मुख होना और वर्तमान में संयुक्त हो जाना यह एकान्त नित्य का विरोधी सांख्य कहता है कि कूटस्थ नित्य आत्मा से सर्वथा भिन्न अतिशयों के द्वारा सातिशयी पुरुष (आत्मा) के मोक्षमार्ग के साथ भावी काल में सयुक्तता हो जाती है। जैनाचार्य कहते हैं कि, सांख्य का यह कथन प्रशंसनीय नहीं है। क्योंकि इसमें अनवस्था दोष का प्रसंग आता है। तथाहि- आत्मा अपने सर्वज्ञत्व आदि कल्याणमार्ग से युक्तता आदि अतिशयों के साथ सम्बन्ध करता हुआ यदि नाना स्वभावों के साथ सम्बन्ध करता है तब तो सम्बन्ध करने वाले उन स्वभावों के साथ भी, उन स्वभावों से भिन्न अनेक स्वभावों से (सम्बन्ध करेगा) और उन नाना स्वभावों के साथ सम्बन्ध करने के लिए दूसरे स्वभावों की आवश्यकता होगी। अतः अनवस्था दोष आयेगा। अर्थात् जिस प्रकार भिन्न अतिशयों के सम्बन्ध से आत्मा अतिशयवान होता है, वे अतिशय किस के संयोग से अतिशयवान थे? यदि वे दूसरे अतिशयों से अतिशयवान थे तो वे अतिशय किससे अतिशयवान थे? इस प्रकार अनवस्था दोष आता है।