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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 245 . मुक्तस्याहंकाराभासदपुरुषस्वभाव एवाहंकारः, स्वभावो हि न जातुचित्तद्वंतं त्यजति, तस्य निःस्वभावत्वप्रसंगादिति चेन्न / स्वभावस्य द्विविधत्वात्, सामान्यविशेषपर्यायभेदात् / तत्र सामान्यपर्यायः शाश्वतिकः स्वभावः, कादाचित्को विशेषपर्याय, इति न कादाचित्कत्वात्पुंस्यहंकारादेरतत्स्वभावता ततो न तदास्पदत्वमनुभवितृत्वस्यौपाधिकं, येनाभ्रांतं न भवेत् कर्तृत्ववत् / न चाभ्रांताहंकारास्पदत्वाविशेषेऽपि कर्तृत्वानुभवितृत्वयोः प्रधानात्मकत्वमयुक्तं, यतः पुरुषकल्पनमफलं न भवेत् / हुआ धर्म है। जैनाचार्य कहते हैं कि इस प्रकार सांख्यों का कथन तब घटित हो सकता है जब पुरुष का स्वभाव अहंकार न होता। परन्तु "मैं मैं" इस प्रतीति के उल्लेख करने योग्य आत्मा ही है। अत: अहंकार पुरुष (आत्मा) का ही स्वभाव है। सांख्य कहता है कि मुक्त जीवों में अहंकार का अभाव होने से अहंकार अपुरुष (प्रधान) का ही स्वभाव है (आत्मा का स्वभाव नहीं है।) क्योंकि जो स्वभाव होता है, वह अपने स्वभाववान को कभी नहीं छोड़ता है। यदि स्वभाव स्वभाववान को छोड़ देता है तो वस्तु के निःस्वभावत्व का प्रसंग आयेगा। जैनाचार्य कहते हैं “यह सांख्य का कथन प्रशंसनीय नहीं है। क्योंकि सामान्य पर्याय और विशेष पर्याय के भेद से वस्तु का स्वभाव दो प्रकार का है। उसमें जो सामान्य पर्याय है- वह शाश्वतिक स्वभाव है। उसका कभी नाश नहीं होता है। वह अनादि काल से अनन्त काल तक वस्तु के साथ रहता है। परन्तु विशेष पर्याय नाम का स्वभाव है, वह कादाचित्क है। कभी-कभी होता है। अतः वह सादि और सांत है। अतः क्रोधादिक कादाचित्क होने से निरंतर नहीं रहते हैं। पुरुष का अहंकार भी अतत्स्वभाव है। इसलिये अहंकार आदि आत्मा का स्वभाव नहीं है, विभाव है। अत: यह सिद्ध होता है कि भोग. या अनुभव करने वाले आत्मा का अहंकार के साथ एकार्थपना अन्यद्रव्य से आया हुआ औपाधिक नहीं है, अपितु आत्मा का ही विभाव भाव है जिससे कि कर्त्तापने के समान अहंकार भाव आत्मा को न हो सके। - अथवा “मैं सुखी हूँ, मैं दुःखी हूँ, मैं सुनने वाला हूँ" इत्यादि वाक्यों में 'मैं' वा 'अहं' का अनुभव हो रहा है, वह अहंकार (मान कषाय) नहीं है- अपितु आत्मा का संवेदन है। वह प्रधान का गुण नहीं है, आत्मा का ही गुण है। कर्तापन और भोक्तापन इन दोनों में अभ्रान्त और अहंकारास्पदत्व में अविशेषता (समानाधिकरण की समानता) होने पर भी दोनों प्रकृति स्वरूप ही हैं। ऐसा कहना अयुक्त नहीं है अर्थात् कर्ता और भोक्ता दोनों को ही प्रधान का ही गुण मान लेना चाहिये। जिससे कि सांख्यों के यहाँ आत्मतत्त्व की कल्पना करना व्यर्थ न होवे। अथवा इन दोनों को पुरुष का स्वरूप मान लिया जावे तो प्रधान की कल्पना करना व्यर्थ न होवे। (प्रधान की व्यर्थ कल्पना नहीं करनी पड़े)।
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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