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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 241 मिथ्यादर्शनादि, तस्य विध्वंसः सम्यग्दर्शनादिभावनाबलात् क्वचिदिति समर्थयिष्यमाणत्वान्न हेतोरसिद्धता शंकनीया। सरसि शंखकादिनानैकांतिकोऽयं हेतुः, स्वनिदानस्य जलस्य परिध्वंसेऽपि तस्यापरिध्वंसादिति चेन्न / तस्य जलनिदानत्वासिद्धेः / स्वारंभकपुद्गलपरिणामनिदानत्वात् शंखकादेस्तत्सहकारिमात्रत्वाजलादीनां / न हि कारणमात्रं केनचित्कस्यचिनिदानमिष्टं नियतस्यैव कारणस्य निदानत्वात् / न च तन्नांशे कस्यचिन्निदानिनो न नाश इत्यव्यभिचार्येव हेतुः कथंचन संसारव्याधिविध्वंसनं साधयेद्यतस्तत्परिध्वंसनेन श्रेयसा योक्ष्यमाणः कशिदुपयोगात्मकात्मा न स्यात् / निरन्वयविनश्चरं चित्तं श्रेयसा योक्ष्यमाणमिति न मंतव्यं, तस्य क्षणिकत्वविरोधात् / संसार-रोग का मुख्य कारण है- मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र। किसी आत्मा में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की पालन रूप भावना के सामर्थ्य से संसार-रोग के कारणभूत मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र का विनाश हो जाता है। उस सम्यग्दर्शन आदि के सामर्थ्य का कथन आगे करेंगे। अतः श्रेयोमार्ग से युक्त होना नामक साध्य को सिद्ध करने में दिया गया संसारव्याधि- विध्वंसकत्व हेतु के असिद्ध हेत्वाभास की आशंका नहीं करनी चाहिए। - शंका- 'कारण के नाश होने पर कार्य का नाश हो जाता है, यह हेतु तालाब में स्थित शंख, सीपादिक से अनैकान्तिक है। क्योंकि स्वकीय उत्पत्ति में कारणभूत जल के नाश हो जाने पर भी शंख, सीपादिक का विनाश नहीं होता है। उत्तर- ऐसा कहना उचित नहीं है। क्योंकि शंख, सीप आदि की उत्पत्ति में जल कारण की असिद्धि है। अर्थात् शंख, सीप आदि की उत्पत्ति का प्रधान कारण जल नहीं है। शंख, सीप आदिक की उत्पत्ति का मुख्य कारण स्व शरीर की आरंभक (उत्पादक) पुद्गल वर्गणा रूप पर्याय है। अर्थात् शंख आदिक के शरीर की उत्पत्ति का मुख्य कारण आहारक पुद्गल वर्गणा है। और जलादिक शंख की उत्पत्ति के सहकारी कारण मात्र हैं। किसी कार्य के सम्पूर्ण कारणों को या चाहे किसी सामान्य कारण को उसका निदान मान लेना इष्ट नहीं है। क्योंकि अनेक कारणों में से किसी विशिष्ट नियत कारण को ही कार्य का निदान (कारण) माना जाता है। ऐसे प्रधान कारण का नाश हो जाने पर उसके कार्य का नाश न हो, ऐसा नहीं हो सकता। इसलिए यह निर्दोष हेतु संसार-व्याधि के नाश को सिद्ध करता ही है। और उस संसार-व्याधि के कारणभूत मिथ्यादर्शनादि का नाश हो जाने पर कोई निकट भव्य उपयोग स्वरूप आत्मा मोक्षमार्ग में युक्त न हो, ऐसा नहीं हो सकता। कोई-न-कोई आत्मा मोक्षमार्ग में लगती प्रत्येक क्षण में निरन्वय नष्ट होने वाली आत्मा कल्याण (मोक्ष) मार्ग में लग जाती है, ऐसा (बौद्धों को) नहीं समझना चाहिए। क्योंकि जो कल्याण से युक्त होने वाला है- उसके क्षणिकत्व का विरोध है। अर्थात् सर्वथा क्षणिक आत्मा की कल्याण मार्ग में नियुक्ति नहीं बन सकती है।
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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