________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 242 संसारनिदानरहिताच्चित्ताच्चित्तांतरस्य श्रेयःस्वभावस्योत्पद्यमानतैव श्रेयसा योक्ष्यमाणता, सा न क्षणिकत्वविरुद्धेति चेन्न, क्षणिकैकांते कुतशित्कस्यचिदुत्पत्त्ययोगात् / संतानः श्रेयसा योक्ष्यमाण इत्यप्यनेन प्रतिक्षिप्तं, संतानिव्यतिरेकेण संतानस्यानिष्टेः / पूर्वोत्तरक्षणा एव ह्यपरामृष्टभेदाः(?) संतानस्स चावस्तुभूतः कथं श्रेयसा योक्ष्यते? प्रधानं श्रेयसा योक्ष्यमाणमित्यप्यसंभाव्यं, पुरुषपरिकल्पनविरोधात् / तदेव हि संसरति तदेव च विमुच्यत इति किमन्यत्पुरुषसाध्यमस्ति? प्रधानकृतस्यानुभवनं पुंसः प्रयोजनमिति चेत्, प्रधानस्यैव तदस्तु / कर्तृत्वात्तस्य तन्नेति चेत् / स्यादेवं यदि कर्तानुभविता न स्यात् / द्रष्टुः कर्तृत्वे मुक्तस्यापि संसारकारण से रहित चित्त से कल्याण स्वभाव वाले चित्तान्तर का उत्पन्न हो जाना ही कल्याणमार्ग के साथ भावी नियुक्तपना है। और वह नियुक्ति क्षणिकत्व के विरुद्ध नहीं है। जैनाचार्य कहते हैं- इस प्रकार का बौद्धों का कथन युक्तिसंगत नहीं है। क्योंकि सर्वथा क्षणिक एकान्त मानने पर किसी भी कारण से किसी भी कार्य की उत्पत्ति का अयोग है। भावार्थ- जो एक क्षण में उत्पन्न होकर शीघ्र ही नष्ट हो गया है, जिस पर्याय को आत्मलाभ करने का अवसर ही नहीं मिल पाया है- उसमें अर्थक्रिया कैसे हो सकती है और अर्थक्रिया के बिना वस्तु का वस्तुत्व कैसे रह सकता है? अर्थात् नहीं रह सकता है। . 'विज्ञान की संतान (संतति) कल्याणमार्ग में संयुक्त हो जावेगी।' इस प्रकार बौद्धों का कथन भी पूर्वोक्त कथन से खण्डित हो जाता है। क्योंकि सन्तानी के बिना संतान का रहना इष्ट नहीं है। बौद्ध ग्रन्थ में लिखा है कि “पूर्वोत्तर क्षणों में होने वाली सम्पूर्ण पर्यायें वास्तव में एक दूसरे से सर्वथा भिन्न हैं।" एक दूसरे का स्पर्श करने वाली नही हैं। भ्रान्ति से उनका भेद न. समझकर उनकी सन्तान कल्पित कर ली जाती है। यथार्थ में यह संतान वस्तुभूत नहीं है। अत: अपरमार्थ भूत वह संतान मोक्षमार्ग के साथ कैसे संयुक्त हो सकती है। सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण युक्त प्रधान (प्रकृति) ही मोक्षमार्ग में संयुक्त होता है- ऐसा सांख्य का कथन भी असंभाव्य है। (संभव होने योग्य नहीं है) क्योंकि अचेतन प्रधान (प्रकृति) का मोक्षमार्ग में संयुक्त होना मान लेने पर आत्मतत्त्व की कल्पना करने में विरोध आता है। जबकि प्रकृति ही संसार में भ्रमण करती है, प्रकृति के ही बन्ध है, प्रकृति ही मोक्ष को प्राप्त करती है। ऐसा सिद्धान्त मान लेने पर आत्मा के द्वारा साध्य करने के लिए दूसरा कौनसा कार्य अवशेष रह जाता है। अर्थात् आत्मतत्त्व को मानने से क्या प्रयोजन है। यदि कहो कि प्रधान के द्वारा कृत कार्यों का उपभोग करना ही आत्मा का साध्य प्रयोजन है। तब तो प्रकृति (प्रधान) कृत सुख, दुःख, अहंकार आदि भोग करना ही प्रकृति होना चाहिए। प्रकृति कार्य करने वाली है, भोगने वाली नहीं है, ऐसा कहना तो तब हो सकता है जबकि कर्ता उपभोग करने वाला नहीं हो। (परन्तु करने वाला भोगता है, यह दृष्टिगोचर होता है)।