SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 273
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 240 तस्य देशमुक्ति सुखत्वात् / देशतो मोहक्षयोपशमे हि देहिनो निराकांक्षता विषयरतो नान्यथातिप्रसंगात् / तदेतेन यतिजनस्य प्रशमसुखमसांसारिकं व्याख्यातं। क्षीणमोहानां तु कान्यतः प्रशमसुखं मोहपरतंत्रत्वनिवृत्तेः / यदपि संसारिणामनुकूलवेदनीयप्रातीतिकं सुखमिति मतं, तदप्यभिमानमात्रं / पारतंत्र्याख्येन दुःखेनानुषक्तत्वात्तस्य तत्कारणत्वात् कार्यत्वाच्चेति न संसारव्याधिर्जातुचित्सुखकारणं येनास्य दुःखकारणत्वं न सिद्धयेत् / तद्विध्वंसः कथमिति चेत्, क्वचिनिदानपरिध्वंससिद्धः। यत्र यस्य निदानपरिध्वंसस्तत्र तस्य परिध्वंसो दृष्टो यथा क्वचिज्ज्वरस्य / निदानपरिध्वंसन संसारव्याधेः शुद्धात्मनीति कारणानुपलब्धिः / संसारव्याधेर्निदानं हो जाती है। उससे जो सन्तोष रूप सुख उत्पन्न होता है- वह सांसारिक इन्द्रियजन्य सुख नहीं है अपितु आत्मा के चारित्र गुण का विकास है। अन्यथा (यदि सन्तोष को एकदेश मोक्षसुख नहीं मानेंगे तो) अतिप्रसंग दोष आयेगा। अर्थात् जैसे एकदेश कर्मों का क्षय मोक्षसुख नहीं है तो सम्पूर्ण कर्मों के नाश से होने वाला सुख भी मोक्षसुख नहीं होगा। उपर्युक्त कथन से यतिजनों का प्रशम भाव रूप सुख भी संसार सम्बन्धी नहीं है, ऐसा समझना चाहिए। तथा क्षीणमोही (सम्पूर्ण मोहनीय कर्म के नाश हो जाने से बारहवें गुणस्थान को प्राप्त) जीवों के सम्पूर्ण रूप से मोहनीय कर्म की पराधीनता की निवृत्ति हो जाने से उत्कृष्ट प्रशम (शान्तिरूप निराकुल) सुख उत्पन्न होता है। अर्थात् सर्वथा मोहनीय कर्मजन्य पराधीनता के नष्ट हो जाने पर अनन्त सुख उत्पन्न होता है। यद्यपि संसारी प्राणियों के अनुकूल (साता) वेदनीय का उदय होने पर प्रतीति के अनुसार वैभाविक आनन्द का अनुभव करने रूप सुख होता है, ऐसा माना है। परन्तु उस सातावेदनीयजन्य सुख को सुख मानना अभिमान मात्र है, वह वास्तविक सुख नहीं है। क्योंकि वह सांसारिक सुख पराधीनता नामक दु:ख से मिश्रित है। तथा साता वेदनीय जन्य सुख कर्मों की आधीनता. रूप दु:ख के कारणों से उत्पन्न होने से उसका सांसारिक वैभव की प्राप्ति रूप सुख-कार्य भी दुःख रूप ही है, सुखाभास है। अर्थात् दुःख रूप कार्यों का उत्पादक है। अतः संसार की व्याधि रूप आकुलता के उत्पादक साता वेदनीयजन्य सुख कभी सुख के कारण नहीं हो सकते, जिससे कि संसारव्याधि को दुःख का कारणत्व सिद्ध न हो सके। अर्थात् संसार की आधि, व्याधि और उपाधि अनेक दुःखों की ही कारण हैं। संसार व्याधियों का विनाश कैसे ? प्रश्न- उन संसार-व्याधियों का विनाश कैसे होता है? उत्तर- किसी निकट भव्यात्मा के मिथ्यादर्शन आदि संसार के कारणों का विनाश हो जाने पर संसारव्याधियों का विनाश होना सिद्ध हो जाता है। जहाँ पर जिस कार्य के कारणों का क्षय हो जाता है, वहाँ उस कार्य का नाश देखा जाता है। जैसे ज्वर के कारणभूत वात, पित्त, कफ आदि दोषों का विनाश हो जाने पर रोगी के ज्वर का विनाश देखा जाता है। संसाररोग के कारणों का विनाश शुद्धात्मा में है। क्योंकि शुद्धात्मा में संसार के कारणों की अनुपलब्धि है। अर्थात् कारण की अनुपलब्धि से कार्य का अभाव जान लिया जाता है।
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy