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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक-२३६ ..परापेक्षितया कादाचित्कत्वं व्याप्तं, तेन चानित्यत्वमिति तत्सिद्धौ तत्सिद्धिः / परापेक्षिता पुरुषानुभवस्य नासिद्धा, परस्य बुद्ध्यध्यवसायस्यापेक्षणीयत्वात् / बुद्ध्यध्यवसितमर्थं पुरुषश्तयत इति वचनात् / परानपेक्षितायां तु पुरुषदर्शनस्य सर्वदर्शितापत्तिः, सकलार्थबुद्ध्यध्यवसायापायेऽपि सकलार्थदर्शनस्योपपत्तेरिति योगिन इवायोगिनोऽमुक्तस्य च सार्वज्ञमनिष्टमायातम्॥ सर्वस्य सर्वदा पुंसः सिद्ध्युपायस्तथा वृथा। . ततो दृग्बोधयोरात्मस्वभावत्वं प्रसिद्ध्यतु / / 243 / / कथंचिन्नश्वरत्वस्याविरोधान्नर्यपीक्षणात्।। तथैवार्थक्रियासिद्धेरन्यथा वस्तुताक्षतेः॥२४४॥ दूसरे कारणों की अपेक्षा रखने वाला हेतु व्याप्य है और कभी-कभी उत्पन्न होना. साध्य व्यापक है। अतः परापेक्षिता से कादाचित्कत्व हेतु व्याप्त है। अर्थात् जहाँ-जहाँ परापेक्षीपना है वहाँ कादाचित्कत्व भी अवश्य है और जब इस साध्य को हेतु बना लिया जाता है (कादाचित्कत्व को हेतु बना लिया जाता है) तो वह कादाचित्कत्व हेतु अनित्य के साथ व्याप्ति रखता है। तथा कादाचित्कत्व हेतु के अनित्यपना सिद्ध होने पर पुरुष के भोग भी अनित्य सिद्ध हो जाते हैं। तथा परापेक्षिता पुरुष के भोग में असिद्ध नहीं है। क्योंकि आत्मा का उपभोग अपनी उत्पत्ति में बुद्धि के द्वारा निर्णीत दूसरे कारणों की अपेक्षा रखता है। सांख्य दर्शन का वाक्य है . कि "बुद्धि से निर्णीत किये गये अर्थ को ही आत्मा अनुभव करता है।" यदि पुरुष की चेतना के (अनुभव) करने में दूसरे कारणों की अपेक्षा नहीं मानी जायेगी तो आत्मा को सर्व पदार्थों के अनुभव करने का प्रसंग आने से आत्मा सर्वदर्शी बन जायेगा। क्योंकि सकल पदार्थों का बुद्धि के द्वारा निर्णय नहीं करने पर भी सांख्य मत के अनुसार सकल पदार्थों का अनुभव अथवा दर्शन करना सिद्ध हो जाता है। अत: योगियों (सम्प्रज्ञात योग वाले सर्वज्ञों) के समान अयोगियों (असर्वज्ञ असंप्रज्ञात योगियों) के और अमुक्त (सर्व साधारण संसारी) जीवों के भी सार्वज्ञ (सर्वज्ञपना) प्राप्त हो जायेगा, सभी सर्वज्ञ बन जायेंगे। सब को सर्वज्ञ मानना सांख्य को इष्ट नहीं है, अतः अनिष्ट (स्वसिद्धान्त विरुद्ध) कथन का प्रसंग आयेगा। यदि बिना उपाय (प्रयत्न) ही सर्व जीव सदाकाल सिद्ध हो जायेंगे, तब तो सर्व जीवों को सिद्धि के उपायों (दीक्षा धारण, तपश्चरण आदि सर्व क्रियाओं) का अवलम्बन व्यर्थ हो जायेगा। इसलिए यह कहना ही प्रसिद्ध हो जाए कि ज्ञान और दर्शन दोनों ही आत्मा के स्वभाव हैं अर्थात् चेतना और ज्ञानदर्शन ये दोनों अभिन्न हैं। ज्ञान-दर्शन चेतना की पर्याय हैं। यह निर्बाध सिद्ध है।।२४३।।.. आत्मा नित्यानित्यात्मक है - तथा कथंचित् आत्मा को अनित्य मानने में कोई दोष दृष्टिगोचर नहीं होता है। अनित्य मानना विरोध रहित है। क्योंकि आत्मा के साथ तादात्म्य सम्बन्ध रखने वाले गुण एवं उत्पाद और व्यय प्रमाण सिद्ध हैं। तथा कथंचित् अनित्य आत्मा में ही अर्थक्रिया की सिद्धि होती है। “कुमतिज्ञानादि का नाश और सम्यग्ज्ञानादि की उत्पत्ति, नरक पर्यायादि का नाश और मनुष्यादि पर्याय की उत्पत्ति ही आत्मा की अर्थक्रिया है। अन्यथा (यदि आत्मा में अर्थक्रिया नहीं मानेंगे तो) आत्मा का वस्तुपना नष्ट हो जायेगा। प्रत्येक वस्तु ध्रुव होकर भी प्रतिक्षण नवीन-नवीन पर्यायों को प्राप्त होती रहती है, यह अनुभव सिद्ध है। अतः आत्मा कथंचित् द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा नित्य है और कथंचित् पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा अनित्य है, ऐसा मानने में कोई विरोध नहीं है।॥२४४ //
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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