________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्त्तिक - 237 सर्वस्य सर्वज्ञत्वे च वृथा सिद्ध्युपायः, साध्याभावात् / सिद्धिर्हि सर्वज्ञता मुक्तिर्वा कुतशिदनुष्ठानात्साध्यते? तत्र न तावत्सर्वज्ञता तस्याः स्वतः सिद्धत्वात्। नापि मुक्तिः सर्वज्ञतापाये तदुपगमात्तस्य चासंभवात् / परानपेक्षितायाः सर्वदर्शितायाः परानिवृत्तावपि प्रसक्तेः / स्यान्मतं / न बुद्ध्यध्यवसितार्थालोचनं पुंसो दर्शनं तस्यात्मस्वभावत्वेन व्यवस्थितत्वादिति। तदपि नावधानीयं, बोधस्याप्यात्मस्वभावत्वोपपत्तेः। न ह्यहंकाराभिमतार्थाध्यवसायो बुद्धिस्तस्याः पुंस्वभावत्वेन प्रतीतेर्बाधकाभावात् / इति दर्शनज्ञानयोरात्मस्वभावत्वमेव प्रसिद्ध्यतु विशेषाभावात् / सर्व जीवों के सर्वज्ञता सिद्ध हो जाने पर तपश्चरण, वैराग्य आदि सिद्धि के उपाय व्यर्थ हो जायेंगे। तथा सर्वज्ञता के स्वयं में प्राप्त हो जाने पर साध्य का भी अभाव हो.जायेगा। अर्थात् सर्वज्ञता के अतिरिक्त कोई वस्तु साध्य नहीं है। .... जिस सिद्धि की प्राप्ति किसी अनुष्ठान आदि से सिद्ध की जाती है, वह सिद्धि सांख्य मत में क्या है? अर्थात् सांख्य मत में सिद्धि का क्या स्वरूप है, मुक्ति है? वा सर्वज्ञता। केवलज्ञान के द्वारा सर्व पदार्थों को एक साथ साक्षात् कर लेने रूप सर्वज्ञता की सिद्धि मानना तो सांख्य मत में उचित नहीं है। क्योंकि सांख्य मत में सर्वज्ञता प्रकृति का धर्म है और प्रकृति का संसर्ग आत्मा में स्वतः हो रहा है, अतः स्वयं सिद्ध होने से उसके लिए अनुष्ठान आदि करना व्यर्थ है। . . ज्ञान, सुख आदि का नाश कर आत्मा का अपने स्वरूप में लीन हो जाने स्वरूप मुक्ति के लिए तपश्चरण आदि करना भी उपयुक्त नहीं है। क्योंकि सर्वज्ञता के नाश हो जाने पर आत्मा का अपने में स्थिर हो जाना सांख्य मत में मोक्ष स्वीकार किया गया है। किन्तु जब सर्वज्ञता स्वतः सिद्ध है तो उसका नाश करना संभव नहीं है। पर (दूसरे) की अपेक्षा के बिना होने वाली सर्वदर्शिता (सर्वज्ञता) के पर की अनिवृत्ति होने पर भी विद्यमान रहने का प्रसंग आयेगा। अर्थात् प्रकृति के संसर्ग से प्राप्त का मोक्ष में अभाव या सद्भाव होने पर भी सर्वज्ञता के अक्षुण्ण बने रहने का प्रसंग आयेगा। क्योंकि दर्शन के समान ज्ञान भी आत्मा का स्वभाव है, अत: दर्शन (चेतना) के समान सर्वज्ञता का भी मोक्ष में अभाव नहीं है। शंका- बुद्धि के द्वारा निर्णीत वस्तु का देखना आत्मा का दर्शन नही है। क्योंकि पदार्थों का . संचेतन (अनुभव) करना रूप दर्शन तो आत्मस्वभाव से व्यवस्थित है। .. उत्तर- सांख्य को ऐसा नहीं कहना चाहिए। क्योंकि ऐसा मानने पर तो ज्ञान को भी आत्मस्वभाव की सिद्धि हो जाती है। 'सम्पूर्ण विषयों का मैं भोक्ता हूँ' ऐसा अभिमान रूप 'मैं, मैं' इस प्रकार आत्मा का अर्थ निर्णय जड़ रूप प्रकृति से उत्पन्न बुद्धि का कार्य नहीं है। प्रत्युत वह बुद्धि चेतन आत्मा का स्वभाव है। ऐसा स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से प्रतीत होता है। इस प्रतीतिका कोई बाधक प्रमाण नहीं है। अर्थात् उस बुद्धि के पुरुषत्व रूप से प्रतीति होने में बाधक प्रमाण का अभाव है। इस प्रकार दर्शन और ज्ञान के आत्मस्वभाव