________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्त्तिक - 235 सोदाहरणमिति * कुतः साध्यसिद्धिः। सुखबुद्ध्यादयो नात्मस्वभावाः स्वयमचेतनत्वाद्रूपादिवदित्यनुमानादिति चेत्, कुतस्तेषामचेतनत्वसिद्धिः? सुखबुद्ध्यादयो धर्माश्चेतनारहिता इमे। भंगुरत्वादितो विद्युत्प्रदीपादिवदित्यसत् // 239 // हेतोरात्मोपभोगेनानेकांतात्परमार्थतः। सोऽप्यनित्यो यतः सिद्धः कादाचित्कत्वयोगतः // 240 // पुरुषानुभवो हि नश्वरः कादाचित्कत्वाद्दीपादिवदिति परमार्थतस्तेन भंगुरत्वमनैकांतिकमचेतनत्वे साध्ये / कादाचित्कः कुतः सिद्धः पुरुषोपभोगः स्वसद्भावादिति चेत् / कादाचित्कः परापेक्ष्यसद्भावाद्विभ्रमादिवत्।। बुद्ध्यध्यवसितार्थस्य शब्दादेरुपलंभतः // 241 // परापेक्ष्यः प्रसिद्धोऽयमात्मनोऽनुभवोंजसा। परानपेक्षितायां तु पुंद्रष्टेः सर्वदर्शिता // 242 / / सुख, बुद्धि आदि आत्मा के स्वभाव नहीं हैं- क्योंकि वे सुख आदिक स्वयं अचेतन हैं, जैसे रूपादि अचेतन होने से आत्मा के स्वभाव नहीं है? इस अनुमान से आत्मा के अज्ञत्व की सिद्धि होती है। जैनाचार्य कहते हैं कि- सुख, ज्ञान आदिक में अचेतनत्व किस प्रमाण से सिद्ध है? वा किस हेतु से सिद्ध है? सांख्य हेतु के द्वारा सुख और ज्ञान अचेतन सिद्ध करता है? ये सुख, ज्ञान आदिक धर्म अचेतन हैं, क्योंकि क्षणभंगुर हैं, जो-जो क्षण-भंगुर होते हैं, (शीघ्र नष्ट हो जाते हैं) वे अचेतन होते हैं- जैसे विद्यत (बिजली) दीपक आदि। अर्थात बिजली दीपक आदि के समान क्षणभंगुर होने से सुख, बुद्धि आदि धर्म अचेतन हैं। जैनाचार्य कहते हैं- कि सांख्य के द्वारा कथित यह अनुमान समीचीन नहीं है- क्योंकि क्षणभंगुरत्व हेतु आत्मा के उपभोग के द्वारा अनैकान्तिक हो जाता है। परमार्थ से आत्मा के उपभोग को कदाचित् होने वाली क्रिया के कारण अनित्य कहा है। अर्थात् आत्मा का उपभोग भी कादाचित्क का योग होने से परमार्थ से अनित्य है। परन्तु आत्मा के उपभोग अचेतन नहीं है। अतः क्षणभंगुर हेतु अचेतन से विपरीत चेतन में चले जाने से अनैकान्तिक हेत्वाभास है। इसलिये क्षणभंगुरत्व हेतु प्रशस्त नहीं है।।२३९-२४०।। परमार्थ से दीपकलिका के समान कादाचित्कत्व होने से पुरुष (आत्मा) के भोग नश्वर हैं। अतः बुद्धि आदि को अचेतन सिद्ध करने के लिए दिया गया हेतु अनैकान्तिक है। क्योंकि आत्मा के उपभोग रूप विपक्ष चैतन्य में भी वह विद्यमान है। सांख्य कहता है कि- जब आत्मा सदा विद्यमान रहता है तब आत्मा का उपभोग कभी-कभी होता है- यह किस प्रमाण से सिद्ध है? जैनाचार्य कहते हैं भ्रान्ति आदि ज्ञान के समान जिसमें दूसरों की अपेक्षा का सद्भाव पाया जाता है, वह कादाचित्क कहलाता है। अर्थात् जैसे संशय ज्ञान में कामला रोग आदि दूसरों की अपेक्षा का सद्भाव होने से संशय ज्ञान कभी-कभी होता है। भ्रान्त ज्ञान के समान बुद्धि के द्वारा निश्चित किये हुए शब्द, रूप, रस आदि विषयों का आत्मा को भोग होना देखा जाता है। अतः आत्मा का अनुभव (उपभोग) दूसरे की अपेक्षा रखने वाला स्पष्ट रूप से प्रसिद्ध है। अत: कादाचित्क है। यदि आत्मा के उपभोग में दूसरों (बुद्धि) की अपेक्षा नहीं है तो आत्मा के सर्वदर्शिता और सर्वभोक्तृत्व का प्रसंग आयेगा॥२४१-२४२॥