SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 267
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक-२३४ प्राणादयो निवर्तते यथा चैतन्यवर्जिते। वीरणादौ तथा ज्ञानशून्येऽपीति विनिश्चयः // 238 // न हि चेतनत्वे साध्ये निशितव्यतिरेकाः प्राणादिवृत्तयो न पुनर्ज्ञानात्मकतायामिति शक्यं वक्तुं, तदभावेऽपि तासां वीरणादावभावनिर्णयात् / चैतन्याभावादेव तत्र ता न भवंति न तु विज्ञानाभावादिति कोशपानं विधेयं / सत्यं / विज्ञानाभावे ता न भवंति, सत्यपि चैतन्ये मुक्तस्य तदभावादित्यपरे, तेषां सुषुप्तौ विज्ञानाभावसाधनमयुक्तं, प्राणादिवृत्तीनां सद्भावात् / तथा च न हैं- इसलिए चैतन्य है, इस प्रकार अन्वय और व्यतिरेक व्याप्ति के निश्चय से सुप्तावस्था में आत्मा में चैतन्य की सिद्धि होती है। जैनाचार्य कहते हैं कि- जिस प्रकार चैतन्य से रहित वीरण आदि में श्वासोच्छ्रास आदि प्राणों की निवृत्ति है (प्राण नहीं हैं); उसी प्रकार ज्ञान रहित वीरणादि में प्राण नहीं हैं- ऐसा भी निश्चय होता है॥२३८॥ भावार्थ- ज्ञान और चैतन्य दो पदार्थ नहीं हैं। इन दोनों में शब्दभेद है, अर्थभेद नहीं है। चेतन और ज्ञान आत्मा का एक ही गुण है। त्रिकाल रहने वाला चेतन और ज्ञान आत्मा का अभिन्न गुण है। आत्मा के चैतन्य को साध्य करने पर श्वासोच्छ्रास आदि प्रवृत्तियों का व्यतिरेक निश्चित है और आत्मा को ज्ञानात्मक साध्य करने पर प्राण, अपान आदि प्रवृत्तियों का व्यतिरेक निश्चित नहीं है, ऐसा नहीं कह सकते। क्योंकि ज्ञान के अभाव में भी वीरण आदि में प्राण अपान आदि प्रवृत्तियों के अभाव का निश्चय चैतन्य का अभाव होने से वीरण आदि में श्वासोच्छ्रासादि प्राणों का अभाव है। ज्ञान का अभाव होने से वीरण आदि में प्राण अपान आदि का अभाव नहीं है। ऐसा कहना भी कदाग्रह के कारण शपथ खाने के समान है। भावार्थ- सांख्य श्वासोच्छ्रास आदि प्राणों की प्रवृत्तियों को ज्ञान का कार्य न मानकर चैतन्य का कार्य मानता है। वह उसका कदाग्रह ही है। परमार्थ से ज्ञान और चेतना में कोई भेद नहीं है। सांख्य मत का कोई विद्वान् कहता है कि- स्याद्वाद सिद्धान्तानुसार 'विज्ञान के हीन होने पर श्वासोच्छ्रास आदि प्रवृत्तियाँ नहीं होती हैं' यह कहना सत्य है- क्योंकि मुक्तावस्था में चैतन्य गुण के होने पर भी विज्ञान का अभाव होने से प्राण-अपान आदि की प्रवृत्ति नहीं है। यदि श्वासोच्छ्वास आदि को चैतन्य का कार्य मानेंगे तो मुक्तावस्था में भी श्वासोच्छ्रासादि प्राणों का प्रसंग आयेगा। ___ जैनाचार्य कहते हैं कि इस प्रकार कहने वाले सांख्यों के सुप्तावस्था में विज्ञान का अभाव सिद्ध करना युक्तिसंगत नहीं होगा। क्योंकि सुप्तावस्था में श्वासोच्छ्रास लेना, नाड़ी चलना, पाचन क्रिया होना आदि प्रवृत्तियों का सद्भाव पाया जाता है। तथा 'सुप्तावस्था में ज्ञान नहीं है इसलिये आत्मा का ज्ञान स्वभाव नहीं है' इस में दिया गया सुप्तावस्था का उदाहरण भी उदाहरणाभास है- क्योंकि सुप्तावस्था में विज्ञान की सिद्धि होती है अतः इस उदाहरण से साध्य की सिद्धि कैसे हो सकती है। अपितु आत्मा की सम्पूर्ण अवस्था में ज्ञान की सिद्धि होती है। सांख्य कहता है कि
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy