________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक- 231 नन्वेकं द्रव्यमनंतपर्यायान् सकृदपि यथा व्याप्नोति तथात्मा व्यक्तविवर्तशरीरेण संसर्ग क्वचिदन्यत्र वाऽसंसर्ग प्रतिपद्यत इति चेन्न, वस्तुनो द्रव्यपर्यायात्मकस्य जात्यंतरत्वात्, व्याप्यव्यापकभावस्य नयवशात्तत्र निरूपणात् / नैवं नानै कस्वभावः पुरुषो जात्यंतरतयोपेयते निरतिशयात्मवादविरोधादिति / कायेऽभिव्यक्ती ततो बहिरभिव्यक्तिप्रसक्तेः सर्वत्र संवेदनमसंवेदनं नोचेत् नानात्वापत्तिःशक्या परिहर्तुं / ततो नैतौ सर्वगतात्मवादिनौ चेतनत्वमचेतनत्वं वा भावार्थ- आकाश अनन्तप्रदेशी है, अतः सर्वव्यापी है। यदि आकाश अनन्त प्रदेशी (सावयवी) नहीं हो तो यह सर्वव्यापी नहीं हो सकता। परन्तु कपिल तो आत्मा को प्रदेश रहित निरंश मानता है, वह जगद्व्यापी कैसे हो सकता है। निरंश आत्मा में क्वचित् स्थान में व्यक्त संसर्ग से आत्मा का वेदन हो और किसी स्थान में व्यक्त संसर्ग का अभाव होने से आत्मा का वेदन न हो, यह घटित नहीं हो सकता। प्रश्न- जैसे जैनमत में एक ही द्रव्य अनन्त पर्यायों को एक साथ व्याप्त कर लेता है- वैसे ही आत्मा व्यक्त पर्याय रूप शरीर के साथ संसर्ग को और अन्यत्र (पर्वत नदी आदि स्थानों में) असंसर्ग को धारण करता है। उत्तर- इस प्रकार कपिल का कथन युक्तिसंगत नहीं है। क्योंकि जैन सिद्धान्त में द्रव्य पर्यायात्मक वस्तु को जात्यन्तर स्वभाव वाली स्वीकार किया गया है। अर्थात् वह वस्तु कथंचित् पर्याय से अभिन्न है, कथंचित् भिन्न है और कथंचित् भिन्नाभिन्नात्मक है। अतः नयों की विवक्षा से एक ही वस्तु के व्याप्य और व्यापक भाव का निरूपण कर देते हैं। अर्थात् पर्यायों से भिन्न द्रव्य नहीं है, गुण-पर्यायों का समुदाय ही द्रव्य है। अतः द्रव्य व्यापक है और व्याप्य है। इस प्रकार एक ही वस्तु में व्याप्य-व्यापक भाव घटित हो जाता है। अतः कथंचित् भिन्न स्वभावों से नित्य द्रव्य रूप अंशों में तथा अनित्य पर्याय रूप अंशों में वस्तु व्यापक रह जाती है परन्तु कपिल के मत में इस प्रकार स्याद्वाद मत के अनुसार अनेक स्वभावों को धारण करने वाला एक पुरुष स्वीकार नहीं किया गया है। अर्थात् जैनधर्म में द्रव्य की अपेक्षा एक अखण्ड और पर्याय की अपेक्षा भिन्न-भिन्न जात्यन्तर स्वभाव वाला (भिन्नाभिन्नात्मा) आत्मा स्वीकार किया गया है। क्योंकि स्याद्वाद सिद्धान्त के समान आत्मा को कथंचित् भिन्न और कथंचित् अभिन्न स्वीकार कर लेने पर निरतिशय निरंश कूटस्थ नित्य आत्मवादी सांख्य के सिद्धान्त में विरोध आता है और स्याद्वाद की सिद्धि होती है। . शरीर में आत्मा की अभिव्यक्ति है ऐसा मानने पर शरीर के बाह्य भी आत्मा की अभिव्यक्ति होने का प्रसंग आयेगा। क्योंकि आत्मा सर्वत्र एक समान व्यापक है। इसलिए या तो आत्मा का संवेदन सर्वत्र होना चाहिए अथवा सर्वत्र ही संवेदन नहीं होना चाहिए। यदि ऐसा कपिल नहीं मानेंगे तो एक आत्मा के नानात्व का परिहार करना दुःशक्य हो जायेगा। उस आत्मा को एक निरंश स्वीकार नहीं कर सकते। इसलिये आत्मा को सर्वत्र व्यापक मानने वाले सांख्य और नैयायिक आत्मा के चेतनत्व और अचेतनत्व को सिद्ध करने में समर्थ नहीं हैं। जिससे उनका चेतनत्व हेतु असिद्ध हेत्वाभास न हो।