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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 230 कायेऽभिव्यक्तत्वात् पुंसः संवेदनं न ततो बहिरनभिव्यक्तत्वादिति ब्रुवाणः कथं तस्यैकस्वभावतां साधयेत्, व्यक्तेतराकारभेदाढ़ेदस्य सिद्धेः। यत्र व्यक्तसंसर्गस्तत्रात्मा संवेद्यते नान्यत्रेत्यप्यनेनापास्तम्। निरंशस्य कचिदेव व्यक्तसंसर्गस्येतरस्य वा सकृदयोगात् / सकृदेकस्य परमाणोः परमाण्वंतरेण संसर्ग कचिदन्यत्र वासंसर्ग प्रतिपद्यत इति चेत् न, तस्यापि कचिद्देशे सतो देशांतरे च तदसिद्धेः / गगनवत्स्यादिति चेत् न, तस्यानंतप्रदेशतया प्रसिद्धस्य तदुपपत्तेरन्यथात्मवदघटनात् / शरीर स्थित आत्मा अभिव्यक्त है- इसलिए आत्मा का वेदन होता है और शरीर बाह्य स्थित आत्मा अभिव्यक्त नहीं है- इसलिए उसका संवेदन नहीं होता है। इस प्रकार कहने वाला कपिल आत्मा की एकस्वभावता कैसे सिद्ध कर सकता है। क्योंकि व्यक्त और अव्यक्त के भेद से आत्मा के दो भेद सिद्ध हो जाते हैं। जहाँ आत्मा में व्यक्त (शरीर, इंन्द्रिय, मन, पुण्य, पाप, श्वासोच्छ्वास आदि) प्रकृति की पर्यायों का संसर्ग होता है- वहाँ आत्मा का संवेदन होता है- परन्तु जहाँ शरीर आदि व्यक्त पदार्थों का संसर्ग नहीं है वहाँ शरीर से बाह्य अन्य स्थानों में स्थित आत्मा का संवेदन नहीं होता है। इस प्रकार कहने वाले कपिल का भी पूर्वोक्त कथन से खण्डन हो जाता है। क्योंकि कपिल द्वारा कल्पित निरंश आत्मा के कहीं पर शरीर / आदि व्यक्त प्रकृति पर्याय का संसर्ग हो, और किसी स्थान पर अव्यक्त संसर्ग हो, इस प्रकार एक आत्मा में देशभेद से एक साथ भिन्न-भिन्न का अयोग है। अर्थात् एक निरंश अखण्ड जगद्व्यापी आत्मा में एक साथ व्यक्त और अव्यक्त संसर्ग घटित नहीं हो सकता। ____ अंशरहित एक परमाणु का जैसे किसी एक परमाणु से संसर्ग और उसी समय किसी दूसरे देश में अन्य परमाणुओं का असंसर्ग जाना जाता है (होता है)। अर्थात् जैसे निरंश एक परमाणु संसर्ग और असंसर्ग दोनों स्वभावों को एक समय में धारण करता है, वैसे ही निरंश आत्मा भी एक समय में व्यक्त के संसर्ग और असंसर्ग दोनों स्वभावों को धारण करती है। कपिल का यह कथन युक्तिसंगत नहीं है। क्योंकि वास्तव में परमाणु निरंश नहीं है। अतः किसी देश में विद्यमान हो रहे उस परमाणु का भी देशान्तर में स्थित रहना सिद्ध नहीं होता है। परमाणु व्यापक नहीं है। भावार्थ- परमाणु सर्वथा निरंश नहीं है- वह षट्कोणात्मक है- अत: उसका एक परमाणु के साथ सम्बन्ध और दूसरे परमाणु के साथ असम्बन्ध सिद्ध हो जाता है। परन्तु कपिल के मत में आत्मा सर्वथा निरंश है, इसलिए निरंश व्यापक आत्मा के दो विरुद्ध धर्मों को स्वीकार करने में परमाणु का दृष्टान्त सम नहीं है, अपितु विषम है। आत्मा और परमाणु दोनों ही सांश होकर ही संसर्ग और असंसर्ग इन दो विरुद्ध धर्मों को धारण कर सकते हैं, अन्यथा नहीं। जिस प्रकार निरंश आकाश अनेक पदार्थों के साथ संसर्ग रखता हुआ व्यापक है, वैसे ही निरंश आत्मा भी व्यापक है परन्तु ऐसा कहना उचित नहीं है- क्योंकि अनन्त प्रदेशों से प्रसिद्ध उस आकाश के अनेक देशों में रहना (व्यापकपना) घटित हो सकता है अन्यथा (यदि आकाश अनन्तप्रदेशी न हो तो) आत्मा के समान उसका भी सर्व देशों में रहना घटित नहीं हो सकता।
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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