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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक-२२९ . शरीरादहिरप्येष चेतनात्मा नरत्वतः। कायदेशवदित्येतत्प्रतीत्या विनिवार्यते // 232 // काये चेतनत्वेन प्राप्तस्य नरत्वस्य दर्शनात्ततो बहिरप्यात्मनशेतनत्वसिद्ध सिद्धसाधनमिति न मंतव्यं प्रतीतिबाधनात् / तथा हि तथा च बाह्यदेशेऽपि पुंसः संवेदनं न किम्। कायदेशवदेव स्याद्विशेषस्याप्यसंभवात् / / 233 // यस्य हि निरतिशयः पुरुषस्तस्य कायेऽन्यत्र च न तस्य विशेषोऽस्ति यतः काये संवेदनं न ततो बहिरिति युज्यते। कायाबहिरभिव्यक्तेरभावात्तदवेदने। पुंसो व्यक्तेतराकारभेदाढ़ेदः कथं न ते॥२३४॥ शरीर से बाह्य स्थित आत्मा भी चेतन है, क्योंकि वह आत्मा है। जो-जो आत्मा है वह चेतन है, जैसे शरीर में स्थित आत्मा चेतन है। इस प्रकार शरीर से बाह्य स्थित आत्मा भी चेतन है क्योंकि वह आत्मा है। इस प्रकार कापिलों का यह अनुमान तो प्रसिद्ध प्रतीति से रोक दिया जाता है॥२३२॥ शरीर में स्थित आत्मा को चेतनत्व से व्याप्त देखकर शरीर के बाह्य भी आत्मा में चेतना सिद्ध की जाती है। अर्थात् शरीर के भीतर आत्मा को चेतनता व्याप्त देखा जाता है। अत: शरीर से बाह्य स्थित आत्मा में भी चेतनता असिद्ध नहीं है। अत: आत्मा को अज्ञ सिद्ध करने के लिए दिया गया चेतनत्व हेतु असिद्ध नहीं है। (जैनाचार्य कहते हैं कि कपिल को) ऐसा नहीं मानना चाहिए- क्योंकि शरीर से बाह्य घट-पटादि में आत्मा की सत्ता मानना प्रतीति से बाधित है। इसी कथन को स्पष्ट करते हैं ___(जैनाचार्य) यदि शरीर-बाह्य घट-पटादि पदार्थों में स्थित आत्मा में चेतन है तो उसका वेदन क्यों नहीं होता है? जैसे शरीर में स्थित आत्मा को सुख-दु:ख आदि का वेदन होता है शरीर से बाह्य स्थित आत्मा में भी सुख दुःख का वेदन होना चाहिए। क्योंकि शरीर में स्थित और शरीर बाह्य स्थित दोनों आत्माओं में विशेषता की असंभवता है॥२३३ / / __ जिस (कपिल) के मत में आत्मा निरतिशय (किसी भी अंश में कोई अतिशय नहीं है, अखण्ड रूप से सारे विश्व में व्याप्त) है। उनके मत में ऐसा कौनसा विशेष है जिससे शरीरस्थ आत्मा में सुख-दुःख आदि का वेदन होता है। शरीर से बाह्य स्थित आत्मा में सुख-दुःख का अनुभव नहीं होता है। यह युक्तिसंगत नहीं है। शरीरबाह्य आत्मा के अभिव्यक्ति का अभाव है अतः तिरोभूत आत्मा का शरीर से बाह्य संवेदन नहीं होता है। इस प्रकार कपिल के कहने पर जैनाचार्य कहते हैं कि इस प्रकार आत्मा के व्यक्त और अव्यक्त दो भेद क्यों नहीं होंगे, अवश्य होंगे। (और आत्मा के दो भेद सिद्ध हो जाने पर 'आत्मा अखण्ड एक सर्व जगद्व्यापी है' इस प्रकार के सिद्धान्त का व्याघात होता है)॥२३४॥
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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