SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 249
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 216 समानमात्मनि / सोऽपि हि स्वावरणविच्छेदाजाते प्रतिभासे विभासते न तनिरपेक्षः स्वप्रतिभासं जनयतीति। तदेवमात्मनः कर्तृत्वकर्मत्वापलापवादिनौ नान्योन्यमतिशय्ये ते / ये तु प्रतीत्यनुसरणेनात्मनः स्वसंविदितात्मत्वमाहुस्ते करणज्ञानात्फलज्ञानाच्च भिन्नस्याभिन्नस्य वा भिन्नाभिन्नस्य वा? भित्रस्य करणज्ञानात्फलज्ञानाच्च देहिनः / स्वयं संविदितात्मत्वं कथं वा प्रतिपेदिरे // 219 // अर्थ प्रतिभासक्रिया का कर्ता नहीं है, तब तो स्याद्वादी भी कह सकते हैं कि अपने प्रतिभास का जनक होने से आत्मा भी प्रतिभास क्रिया का उपचार से कर्ता है, वास्तव में नहीं। क्योंकि जैसे प्रतिभास का जनक पदार्थ है, वैसे ही प्रतिभास का जनक आत्मा है- इन दोनों में कोई विशेषता नहीं है। ... ... यदि कहो कि अपने प्रतिभास का जनक आत्मा अकर्ता कैसे हो सकता है? तो जैनाचार्य कहते हैं .. कि अपने प्रतिभास का जनक पदार्थ भी अकर्ता कैसे हो सकता है? यदि कहो कि अन्य पदार्थ जड़ हैं, इसलिए वे ज्ञप्ति रूप प्रतिभास के जनक नहीं हैं तो जैनाचार्य कहते हैं कि तब तो वह पदार्थ अपने प्रतिभास का भी जनक नहीं हो सकता क्योंकि वह जड़ है। यदि कहो कि वह जड़ पदार्थ इन्द्रिय आदि अन्य कारणों के संयोग से प्रतिभास को उत्पन्न करता है और अर्थ को प्रतिभासित कराता है, किन्तु वह जड़ पदार्थ स्वयं अपने प्रतिभास को उत्पन्न नहीं कराता है। तो जैनाचार्य कहते हैं- कि यह कथन तो आत्मा में भी घटित हो सकता है कि वह आत्मा भी स्वकीय ज्ञानावरण कर्म के विच्छेद (क्षय वा क्षयोपशम) हो जाने से प्रतिभास के उत्पन्न हो जाने पर स्वयं प्रकाशित हो जाता है, निरपेक्ष (इन्द्रिय, ज्ञानावरण कर्मो के क्षय और क्षयोपशम के बिना) आत्मा स्वकीय प्रतिभास को उत्पन्न नहीं करता है। ___ इस प्रकार आत्मा के कर्तृत्व का लोप करने वाले (बौद्ध) और आत्मा के कर्मत्व के अपलापवादी (निषेध करने वाले मीमांसक) इन दोनों में परस्पर कोई अन्तर नहीं है। (दोनों के ही सिद्धान्त में वस्तु की सिद्धि नहीं होती है। दोनों ही प्रतीति का अपलाप करने वाले हैं)। आत्मा कथंचित् प्रत्यक्ष है और कथंचित् परोक्ष ___जो भेदवादी प्रतीति के अनुसार आत्मा को स्वसंविदितस्वरूप कहते हैं, (स्व के द्वारा विदित (ज्ञात) होने को स्वसंविदित कहते हैं। उनके भी सिद्धान्त में वह स्वसंविदित प्रमाणात्मक करण ज्ञान से और ज्ञप्ति स्वरूप फल ज्ञान से भिन्न है कि अभिन्न है वा भिन्नाभिन्न है। अर्थात् वह स्वसंविदिता करणज्ञान और फलज्ञान से भिन्न आत्मा की होती है? कि अभिन्न आत्मा की होती है? कि भिन्नाभिन्न आत्मा की होती है? प्रथम पक्ष में- करणज्ञान और फलज्ञान से सर्वथा भिन्न आत्मा का स्वयं द्वारा संविदित स्वरूपपना कैसे हो सकता है- स्वयं अपना स्वरूप कैसे जान सकता है।॥२१९ / / जो आत्मा करण और फलज्ञान से सर्वथा भिन्न है, वह स्वयं अपना वेदन कैसे कर सकता है?
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy