________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्त्तिक - 217 यद्धि सर्वथा सर्वस्माद्वेदनाद्भिनं तन्न स्वसंविदितं यथा व्योम तथात्मतत्त्वं श्रोत्रियाणामिति कथं तत्तस्येति संप्रतिपन्नाः।। यदि हेतुफलज्ञानादभेदस्तस्य कीर्त्यते / परोक्षेतररूपत्वं तदा केन निषिध्यते // 220 // परोक्षात् करणज्ञानादभिन्नस्य परोक्षता। प्रत्यक्षाच्च फलज्ञानात्प्रत्यक्षत्वं हि युज्यते // 221 // परोक्षात् करणज्ञानात् फलज्ञानाच्च प्रत्यक्षादभिन्नस्यात्मनो न परोक्षता अहमिति कर्तृतया संवेदनानापि प्रत्यक्षता, कर्मतया प्रतिभासाभावादिति न मंतव्यं, दत्तोत्तरत्वात् / तथैवोभयरूपत्वे तस्यैतद्दोषदुष्टता। स्याद्वादाश्रयणं चास्तु कथंचिदविरोधतः / / 222 // यह नियम है कि जो सर्वथा सर्वज्ञानों से भिन्न है, वह स्वसंवेदी नहीं हो सकता। जैसे आकाश सर्व ज्ञानों से भिन्न है अत: वह अपना वेदन (अनुभव) नहीं कर सकता। आकाश के समान आत्मा भी मीमांसक मत में ज्ञान से सर्वथा भिन्न है, इसलिए वह स्व का वेदन कैसे कर सकता है? अर्थात् नहीं कर सकता। यदि प्रमाणस्वरूप करणज्ञान और ज्ञप्तिरूप फलज्ञान से आत्मा का अभेद कहते हैं तो आत्मा के परोक्षपने और प्रत्यक्षपने का निषेध किसके द्वारा किया जा सकता है यानी निषेध कौन कर सकता है- अर्थात् कोई नहीं कर सकता। मीमांसक प्रमाणात्मक करणज्ञान को परोक्ष मानते हैं। ज्ञप्ति स्वरूप फलज्ञान को प्रत्यक्ष मानते हैंअतः प्रमाणात्मक परोक्ष ज्ञान से अभिन्न होने से आत्मा की परोक्षता है। अर्थात् करणज्ञान की (इन्द्रियजन्यज्ञान की) अपेक्षा आत्मा परोक्ष है और अपने स्वरूप से अभिन्न फलज्ञान स्वरूप प्रत्यक्ष ज्ञान की अपेक्षा आत्मा की प्रत्यक्षता है। अतः एक ही आत्मा किसी ज्ञान की अपेक्षा परोक्ष है और दूसरे ज्ञान की अपेक्षा आत्मा प्रत्यक्ष है- अतः कथंचित् भिन्नाभिन्न प्रत्यक्ष और परोक्षपना युक्ति संगत है॥२२०-२२१॥ __ परोक्ष करणज्ञान से और प्रत्यक्ष फलज्ञान से अभिन्न (तादात्म्य) होने से आत्मा के सर्व प्रकार से परोक्षता नहीं है- क्योंकि मैं जानता हूँ', 'मैं देखता हूँ इस प्रकार कर्ता रूप से आत्मा का प्रत्यक्ष वेदन होता है। इसलिए आत्मा परोक्ष नहीं है। परन्तु इतने मात्र से आत्मा प्रत्यक्ष सिद्ध नहीं हो सकती। क्योंकि आत्मा का कर्म रूप से प्रतिभास नहीं होता है। (कर्मरूप से प्रतिभास का अभाव है) ऐसा कहना उचित नहीं है क्योंकि इसका उत्तर पूर्व में दे दिया गया है कि आत्मा स्व को जानने की अपेक्षा कर्म होकर किसी अंश में प्रत्यक्ष का विषय होता है। अर्थात् आत्मा स्वसंवेदन की अपेक्षा प्रत्यक्ष है। उसी प्रकार तृतीय पक्ष के अनुसार उस आत्मा को करणज्ञान और फलज्ञान से भेद और अभेद यों उभयरूप (भिन्नाभिन्न) स्वीकार करते हैं तो उभयरूप में भी इन्हीं दोषों से दूषित होने का प्रसंग आता है। परन्तु कथंचित् भेद, कथंचित् अभेद, कथंचित् उभय स्वरूप स्याद्वाद का आश्रय लेने पर अविरोध (बिना विरोध) वस्तु की सिद्धि हो जाती है।।२२२ / / अर्थात् प्रमाणज्ञान और प्रमिति रूप फलज्ञान से आत्मा के कथंचित् भेद और कथंचित् अभेद का अवलम्बन लेने पर कोई विरोध नहीं आता है।