________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 214 तदैव परेणानुमानादिनात्मा प्रतीयत इति प्रतीतिसिद्धत्वान्न सहानवस्थानविरोधः / स्वयं कर्तृत्वस्य परकर्मत्वेनेति चेत् तर्हि स्वयं कर्तृत्वकर्मत्वयोरप्यात्मानमहं जानामीत्यत्र सहप्रतीतिसिद्धत्वाद्विरोधो माभूत्। न चात्मनि कर्मप्रतीतिरुपचरिता, कर्तृत्वप्रतीतेरप्युपचरितत्वप्रसंगात् / शक्यं हि वक्तुं दहत्यनिरिंधनमित्यत्र क्रियायाः कर्तृसमवायदर्शनात्, जानात्यात्मार्थमित्यत्रापि जानातीति क्रियायाः कर्तृसमवायोपचारः। परमार्थतस्तु तस्य कर्तृत्वे कर्म स एव वा स्यादन्यो वार्थ: स्यात्? स एव भावार्थ- आत्मा में कर्मपना नहीं है- तो अन्य ज्ञान उस को कैसे जानेगा। यदि आत्मा में कर्मपना है- तो कर्ता आत्मा में दूसरे के द्वारा जानने योग्य कर्मपने के रहने से सहानवस्थान विरोध दोष आता है। क्योंकि दोनों समान ही हैं। जिस समय यह आत्मा अपने विषयभूत घट-पटादि पदार्थों को जानता है- उस समय स्वयं आत्मा दूसरे पुरुषों के द्वारा अनुमान, अर्थापत्ति और आगम प्रमाण के द्वारा जाना जाता है। यह प्रतीति से प्रसिद्ध है। अतः स्वयं कर्ता भी आत्मा दूसरे के द्वारा ज्ञात होने से कर्मपने को प्राप्त हो जाता है अतः कर्ता और कर्म के एक साथ रहने से सहानवस्थान विरोध नहीं है। अर्थात् जो आत्मा घट, पट आदि को जानने रूप क्रिया का कर्ता है, वही आत्मा दूसरे के ज्ञान द्वारा अर्थापत्ति ज्ञान से अनुमान ज्ञान से जानने योग्य है। इसलिए कर्म भी है अतः कर्ता और कर्म का एक साथ रहने में कोई विरोध नहीं है। यदि मीमांसक यों कहे कि आत्मा स्वयं कर्ता है और पर के द्वारा जानने योग्य होने से कर्म होता है, इस प्रकार से एक आत्मा में कर्ता, कर्मत्व का विरोध नहीं है। इस पर जैनाचार्य कहते हैं कि इस प्रकार तो आत्मा स्वयं अपने को जानता है- और स्व-पर पदार्थों को जानता है अतः कर्ता है- और स्वयं स्व के द्वारा जानने योग्य होने से स्वयं कर्म भी है- इस प्रकार कर्ता-कर्म के एक साथ रहने में कोई सहानवस्थान नाम का विरोध नहीं है। क्योंकि 'मैं अपने को जानता हूँ,' 'मैं दुःखी हूँ इत्यादि प्रतीतियों में आत्मा स्वयं कर्ता और कर्म रूप से एक साथ सिद्ध हो रहा है। अर्थात् आत्मा स्वयं कर्ता है और स्वयं कर्म भी है। ऐसा प्रतीतिसिद्ध होने से कर्ता और कर्म के एक साथ रहने में कोई विरोध नहीं है। आत्मा में कर्म की प्रतीति उपचार से होती है, (मीमांसक को) ऐसा नहीं कहना चाहिए। क्योंकि ऐसा मानने पर तो आत्मा में कर्तापन की प्रतीति के भी उपचार का प्रसंग आता है। वया ऐसा भी कह सकते हैं कि 'ईन्धन को अग्नि जलाती है। इसमें 'दहति' क्रिया का अग्नि रूप कर्ता में समवाय सम्बन्ध देखा जाता है (मीमांसक मतानुसार) उसी प्रकार आत्मा पदार्थों को जानता है, यहाँ भी जानना रूप क्रिया (जानाति क्रिया) के कर्ता (आत्मा) में समवाय सम्बन्ध से उपचार कर लिया जायेगा। क्योंकि तुम्हारे मतानुसार स्वात्मा में क्रिया नहीं हो सकती। जैसे आत्मा में कर्मत्व उपचार से है, वैसे आत्मा में कर्त्तापना भी उपचार से मानना पड़ेगा।