________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 213 नात्मा प्रतीयते स्वयं किंतु प्रत्येति सर्वदा न ततो प्रतीयमानत्वात्तस्य कर्मत्वसिद्धिरसिद्धता साधनस्येति चेत् / सर्वथाऽप्रतीयमानत्वमसिद्धं कथंचिद्वा? न तावत्सर्वथा, परेणापि प्रतीयमानत्वाभावप्रसंगात् / कथंचित्पक्षे तु नासिद्धं साधनं, तथैवोपन्यासात् / स्वतः प्रतीयमानत्वमसिद्धमिति चेत् / परतः कथं तत्सिद्धं? विरोधाभावादिति चेत् / स्वतस्तत्सिद्धौ को विरोधः? कर्तृत्वकर्मत्वयोः सहानवस्थानमिति चेत्, परतस्तत्सिद्धौ समानं / यदैव स्वयमर्थं प्रत्येति आत्मा कर्ता रूप से प्रतीत होता है और इस कर्तृत्व धर्म से ही आत्मा प्रतीति का कर्म बन जाता है, (प्रतीति का विषय बन जाता है) उसका निषेध कैसे किया जा सकता है? उसका निषेध करना स्ववचन बाधित है। जो प्रत्यक्ष ज्ञान के द्वारा प्रतीयमान ('प्रति' उपसर्ग पूर्वक इण् धातु से कर्म में यक् विकरण कर कृदन्त में 'शानच्' प्रत्यय करने पर 'प्रतीयमान' शब्द की उत्पत्ति होती है।) है, वह प्रत्यक्ष ज्ञान के द्वारा अवश्य विषय किया जा रहा है और ज्ञप्ति (जानन रूप क्रिया) का विषयपन ही कर्मपना है। तथा वह कर्म आत्मा में विद्यमान है। अन्यथा, यदि वह आत्मा प्रतीति का विषयरूप कर्म नहीं है तो आत्मा प्रतीयमान (प्रतीति का विषय) कैसे हो सकता इस पर मीमांसक कहता है कि आत्मा स्वयं प्रतीत नहीं होता है अपितु वह सर्वदा प्रतीति को करता है (स्वयं अनुभव कर रहा है) इसलिए आत्मा कर्ता है। अतः प्रतीति का विषय होने से यानी कर्म बना कर कह देने से उस आत्मा के कर्मत्व की सिद्धि नहीं हो सकती है। अतः (जैनों का) प्रतीयमानत्व हेतु असिद्ध हेत्वाभास है। प्रत्युत्तर देते हुए जैनाचार्य कहते हैं- कि वह प्रतीयमानत्व हेतु सर्वथा असिद्ध है? कि कथंचित् असिद्ध है? ___यदि प्रथम पक्ष लोगे यानी सर्वथा आत्मा की प्रतीति नहीं होती है- इसलिये यह हेतु सर्वथा असिद्ध है, ऐसा तो कथन कर नहीं सकते- क्योंकि ऐसा कहने पर तो दूसरों के द्वारा अनुमान और आगम प्रमाण से भी आत्मा की प्रतीति नहीं हो सकेगी, आत्मा को जान लेने के अभाव का प्रसंग आयेगा। - यदि दूसरा पक्ष लोगे यानी कथंचित् आत्मा की प्रतीति नहीं होती है अर्थात् किसी अपेक्षा से आत्मा की प्रतीति होती है, ऐसा कहते हो तब तो स्याद्वाद के द्वारा कथित हेतु असिद्ध नहीं है। क्योंकि स्याद्वाद मत में भी आत्मा को कथंचित् प्रत्यक्ष होना ही स्वीकार किया है। आत्मा की अनन्त अर्थपर्यायों को सर्वज्ञ ही जान सकते हैं- अत: आत्मा कथंचित् प्रत्यक्ष है। यह सिद्ध होता है। यदि आत्मा को स्वतः असिद्ध माना जाता है अर्थात् आत्मा स्वयं अपने आप को नहीं जानता है तो वह आत्मा दूसरे के ज्ञान का विषय कैसे सिद्ध हो सकता है, दूसरे के द्वारा कैसे जाना जा सकता है। यदि दूसरे के द्वारा आत्मा जाना जाता है, इसमें कोई विरोध नहीं है, ऐसा कहते हो तो स्वतः आत्मा की सिद्धि में क्या विरोध है। आत्मा अपना अनुभव करता है, ऐसा कहने में क्या विरोध आता है। यदि कहो कि कर्ता और कर्म दोनों एक साथ नहीं रहते हैं- अतः इनमें सहानवस्थान नामक विरोध है (जैसे शीत स्पर्श और उष्ण स्पर्श एक साथ नहीं रहते हैं?) तो जैनाचार्य कहते हैं कि दूसरे के द्वारा आत्मा को जानने की सिद्धि में भी सहानवस्थान दोष समान ही है।