________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 210 तेषामप्यात्मकर्तृत्वपरिच्छेद्यत्वसंभवे। कथं तदात्मकस्यास्य परिच्छेद्यत्वनिह्नवः // 215 // कर्तृत्वेनात्मनः संवेदने तत्कर्तृत्वं तावत्परिच्छे द्यमिष्टमन्यथा तद्विशिष्टतयास्य संवेदनविरोधात्, तत्संभवे कथं तदात्मकस्यात्मनः प्रत्यक्षत्वनिह्नवो युक्तः॥ ततो भेदे नरस्यास्य नापरोक्षत्वनिर्णयः / न हि विंध्यपरिच्छेदे हिमाद्रेरपरोक्षता // 216 // कर्तृत्वाद्भेदे पुंसः कर्तृत्वस्य परिच्छेदो न स्यात् विंध्यपरिच्छेदे हिमाद्रेरिवेति। सर्वथात्मनः साक्षात्परिच्छेदाभावात्परोक्षतापत्तेः कथमपरोक्षत्वनिर्णयः? ततो नैकांतेनात्मनः कर्तृत्वादभेदो भेदो वाऽभ्युपगंतव्यः। अब जैनाचार्य मीमांसक के सिद्धान्त का युक्तिपूर्वक खण्डन करते हैं ग्रन्थकार कहते हैं- उन मीमांसकों के दर्शन में आत्मा का कर्त्तापने से परिच्छेद्यत्व (जानने योग्य) संभव होने पर उस कर्ता के साथ तदात्मक सम्बन्ध रखने वाले इस आत्मा के कर्मत्व रूप से परिच्छेद्यत्व का निह्नव कैसे किया जा सकता है। अर्थात् आत्मा ज्ञप्ति क्रिया का कर्ता तो हो सकता है, परन्तु ज्ञप्ति क्रिया का कर्म नहीं हो सकता, ऐसा कहना युक्तिसंगत कैसे हो सकता है॥२१५॥ आत्मा का कर्ता रूप से संवेदन होता है, ऐसा स्वीकार करने पर तो उस कर्तृत्व का परिच्छेद्य (कर्म) इष्ट होगा ही अर्थात् कर्ता को प्रत्यक्ष स्वीकार करने पर उसके कर्म को स्वीकार करना ही पड़ेगा। अन्यथा- यदि कर्ता को परिच्छित्ति (ज्ञप्ति) क्रिया का कर्म नहीं मानेंगे तो उस कर्त्तापने से सहित इस आत्मा के ज्ञान होने का विरोध आयेगा। किन्तु जब आत्मा के उस कर्तृत्व की परिच्छित्ति होना संभव है तो कर्तृत्व के साथ तादात्म्य रखने वाले आत्मा के प्रत्यक्षत्व का लोप करना (आत्मा ज्ञप्ति क्रिया के द्वारा जाना नहीं जाता है- ऐसा कहना) युक्तिसंगत कैसे हो सकता है, अर्थात् नहीं हो सकता। इस आत्मा को कर्त्तापन धर्म से सर्वथा भिन्न मानने पर आत्मा के अपरोक्षत्व का निर्णय नहीं हो सकता। क्योंकि जैसे सर्वथा पृथक्-पृथक् स्थित विन्ध्याचल के परिच्छेद्य हो जाने पर (प्रत्यक्ष हो जाने पर) हिमालय पर्वत की अपरोक्षता नहीं रह सकती॥२१६ / / कर्ता आत्मा से कर्तृत्व धर्म का भेद मानने पर पुरुष (आत्मा) की कर्तृता का ज्ञान नहीं हो सकता। जैसे विन्ध्याचल की ज्ञप्ति हो जाने पर भी विन्ध्याचल से सर्वथा भिन्न हिमाचल की ज्ञप्ति नहीं हो सकती। सर्वथा आत्मा के साक्षात् परिच्छेद का अभाव होने से सम्पूर्ण रूप से परोक्षपने का ही प्रसंग आता है। अतः आत्मा प्रत्यक्ष है- इसका निर्णय कैसे हो सकता है? इसलिए एकान्त से आत्मा के कर्तृत्व से भेद अथवा अभेद स्वीकार नहीं करना चाहिए।