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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक- 209 न प्रत्यक्षमिति कः श्रद्दधीत? यदि पुनरन्यः कर्ता स्यात्तदा स प्रत्यक्षोऽप्रत्यक्षो वा? प्रत्यक्षशेत् कर्मत्वेन प्रतीयमानोऽसाविति न कर्ता स्याविरोधात् / कथमन्यथैकरूपतात्मनः सिद्धयेत्? नानारूपत्वादात्मनो न दोष इति चेन्न, अनवस्थानुषंगात्, इत्यादि पुनरावर्तत, इति महच्चक्रकम्। तस्याप्रत्यक्षत्वे स एवास्माकमात्मेति सिद्धोऽप्रत्यक्षः पुरुषः। परोक्षोऽस्तु पुमानिति चेत् न, तस्य कर्तृरूपतया स्वयं संवेद्यमानत्वात् / सर्वथा साक्षादप्रतिभासमानो हि परोक्षः परलोकादिवन्न पुनः केनचिद्रूपेण साक्षात्प्रतिभासमान, इत्यपरोक्ष एवात्मा व्यवस्थितिमनुभवति / इति केचित् / अथवा यदि स्याद्वादी का यह कथन हो कि किसी रूप से आत्मा कर्ता है, और किसी रूप से वह कर्म है, तो इस प्रकार अनेकत्व रूप मानने पर उस आत्मा के वे अनेक धर्म प्रत्यक्ष हैं कि अप्रत्यक्ष हैं? यदि आत्मा के अनेक धर्म प्रत्यक्ष हैं- तो वह कर्म होने से किसी अन्य कर्ता के द्वारा प्रत्यक्ष होगा। अतः कोई अन्य कर्ता अवश्य होना चाहिए। यदि पृथक्-पृथक् कर्ता-कर्म का प्रत्यक्ष होना स्वीकार करते हैं तो उन कर्ता-कर्म धर्म को भी प्रत्यक्ष मानना होगा। उन धर्मों को प्रत्यक्ष करने के लिए अन्य कर्ता कर्म की आवश्यकता होगी। अत: अनवस्था दोष आयेगा। यदि (जैन) आत्मा के अनेक धर्मों को अप्रत्यक्ष मानते हैं तो अनेक धर्मों के साथ तादात्म्य सम्बन्ध रखने वाला आत्मा प्रत्यक्ष कैसे हो सकता है? आत्मा प्रत्यक्ष है और उसके गुण स्वरूपप्रत्यक्ष नहीं है, ऐसा श्रद्धान कौन कर सकता है! यदि आत्मा के स्वरूप को जानने के लिए अन्य कर्ता को स्वीकार करते हो तो वह अन्य कर्ता ज्ञान के द्वारा प्रत्यक्ष है कि अप्रत्यक्ष है? यदि अन्य कर्ता (आत्मा) प्रत्यक्ष है- तो वह कर्म रूप से प्रतीत होता हैअत: कर्मत्व होने से वह कर्ता नहीं हो सकता। क्योंकि कर्ता और कर्म का एक आधार में रहने का विरोध हैं। यदि कर्ता और कर्म दोनों में एकत्र रहने का विरोध नहीं है तो आत्मा की एकरूपता की सिद्धि कैसे हो सकती है? - आत्मा अनेकधर्मात्मक है- अतः एक आत्मा में एक साथ कर्ता और कर्म के रहने में कोई विरोध (वा दोष) नहीं है। जैनों का ऐसा कहना भी उचित नहीं है। क्योंकि ऐसा मानने पर अनवस्था दोष का प्रसंग आता है। अर्थात् किसी स्वभाव से कर्तापन और किसी स्वभाव से कर्मत्व है, वह प्रत्यक्ष है या अप्रत्यक्ष है, आदि प्रश्नों की आकांक्षा शांत न होने से अनवस्था दोष का प्रसंग आता है। तथा पुनःपुनः प्रश्नों की आवृत्ति होने से महान् चक्रक दोष का भी प्रसंग आता है। ...यदि आत्मा अप्रत्यक्ष है, ऐसा मानते हैं तो हमारे (मीमांसक) मतानुसार आत्मा अप्रत्यक्ष सिद्ध होता है। आत्मा सर्वथा परोक्ष ही है- किसी का ऐसा मानना भी उचित नहीं है- क्योंकि कर्ता रूप से आत्मा का स्वयं प्रत्यक्षरूप संवेदन होता है। जो वस्तु सर्वथा साक्षात् अप्रतिभासमान है, वह परलोक (परलोक, आकाश, परमाणु, पुण्य पाप) आदि के समान परोक्ष मानी जाती है। इनकी ज्ञप्ति वेदवाक्य से होती है। परन्तु जो पुनः किसी रूप से कथंचित् साक्षात् प्रतिभासित होता है, वह सर्वथा परोक्ष नहीं हो सकता है। अर्थात् सर्वथा परोक्ष रूप से उसकी व्यवस्था अनुभव में नहीं आती है। ऐसा कोई (मीमांसक) कहता है।
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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