________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 208 सत्यमात्मा संवेदनात्मकः स तु न प्रत्यक्षः कर्मत्वेनाप्रतीयमानत्वात् / न हि यथा नीलमहं जानामीत्यत्र नीलं कर्मतया चकास्ति तथात्मा कर्मत्वेन। अप्रतिभासमानस्य च न प्रत्यक्षत्वं, तस्य तेन व्याप्तत्वात्। आत्मानमहं जानामीत्यत्र कर्मतयात्मा भात्येवेति चायुक्तमुपचरितत्वात्तस्य तथा प्रतीतेः / जानातेरन्यत्र सकर्मकस्य दर्शनादात्मनि सकर्मकत्वोपचारसिद्धेः / परमार्थतस्तु पुंसः कर्मत्वे कर्ता स एव वा स्यादन्यो वा? न तावत्स एव विरोधात् / कथमन्यथैकरूपतात्मनः सिद्ध्येत् / नानारूपत्वादात्मनो न दोष इति चेत् न, अनवस्थानुषंगात् / के नचिद्रूपेण कर्मत्वं केनचित्कर्तृत्वमित्यनेकरूपत्वे ह्यात्मनस्तदनेकं रूपं प्रत्यक्षमप्रत्यक्षं वा? प्रत्यक्षं चेत्कर्मत्वेन भाव्यमन्येन तत्कर्तृत्वेन, तत्कर्मत्वकर्तृत्वयोरपि प्रत्यक्षत्वे परेण कर्मत्वेन कर्तृत्वेन चावश्यं भवितव्यमित्यनवस्था। तदनेक रूपमप्रत्यक्षं चेत्, कथमात्मा प्रत्यक्षो नाम? पुमान् प्रत्यक्षस्तत्स्वरूपं आत्मा कर्ता भी है और कर्म भी मीमांसक कहता है कि- आत्मा संवेदनात्मक (ज्ञान स्वरूप) है, स्याद्वादियों का यह कथन सत्य है। परन्तु आत्मा प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर नहीं होता है (वा प्रत्यक्ष ज्ञान का विषय नहीं है)। क्योंकि आत्मा की कर्मरूप से प्रतीति नहीं होती है। जैसे "मैं नील को जानता हूँ" इसमें नील कर्म रूप से प्रतीत हो रहा है। अर्थात् जानने रूप क्रिया का फल नील प्रतीत हो रहा है, वैसे आत्मा का कर्म रूप से प्रतिभास नहीं होता है। भावार्थ- जानने रूप क्रिया का कर्ता आत्मा है, उस ज्ञप्ति क्रिया का आत्मा कर्म नहीं है। जो ज्ञप्ति क्रिया का कर्म नहीं है- वह प्रत्यक्ष ज्ञान का विषय (कर्म) नहीं है। क्योंकि ज्ञप्ति क्रिया के कर्म होने के साथ उस प्रत्यक्ष ज्ञान के विषय होने की व्याप्ति है। जो अप्रतिभासमान है, उसके प्रत्यक्षत्व नहीं है। क्योंकि प्रतिभासपने की प्रत्यक्ष के साथ व्याप्ति है। __ 'मैं आत्मा को जानता हूँ ऐसे प्रयोग में कर्मरूप से आत्मा प्रतिभासित होता ही है, ऐसा स्याद्वादियों का कहना भी अयुक्त (युक्तिसंगत नहीं) है। क्योंकि 'मैं आत्मा को जानता हूँ' ऐसी प्रतीति उपचार से होती है, वास्तविक नहीं है। तथा सकर्मक जानन रूप क्रिया का अन्यत्र (घटादिक में) सकर्मत्वं देखा जाता है। अर्थात् जानन रूप क्रिया सकर्मक है- क्योंकि कर्म रूप घटादिक को जानती है। इसलिए इस आत्मा में भी जानन रूप क्रिया के सकर्मत्व को उपचार से सिद्ध कर लिया जाता है। यदि परमार्थ से आत्मा को जानन क्रिया का कर्म स्वीकार करते हो तो 'उस ज्ञान क्रिया का कर्ता वही आत्मा है कि कोई अन्य ज्ञानक्रिया का कर्ता है?' आत्मा स्वयं ज्ञानक्रिया का कर्ता नहीं हो सकता। क्योंकि एक आत्मा में कर्ता और कर्म दोनों मानने में विरोध आता है। अर्थात् एक ही आत्मा कर्ता और कर्म इन दो विरुद्ध धर्मों को धारण नहीं कर सकता। अन्यथा (यदि आत्मा विरुद्ध दो धर्मों को धारण करेगी तो) आत्मा का एक धर्मस्वरूपपना कैसे सिद्ध होगा? (यह मीमांसकों को इष्ट ... आत्मा के कर्ता-कर्म आदि अनेकरूपत्व होने से एक आत्मा के दो विरुद्ध धर्म धारण करने में कोई दोष नहीं है।' ऐसा कहना भी उचित नहीं है। क्योंकि एक में अनेक धर्म मानने पर अनवस्था दोष का प्रसंग आता है।