________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 207 परिच्छे द्या, सापि तत्परिच्छे दकत्वपरिच्छे द्यत्वशक्तिः परया परिच्छेदकशक्त्या परिच्छेद्येत्यनवस्थानमन्यथाद्यशक्तिभेदोऽपि प्रमातृत्वप्रमेयत्वहेतुर्मा भूत् इति न स्याद्वादिनां चोद्यं / प्रतिपत्तुराकांक्षाक्षयादेव क्वचिदवस्थानसिद्धेः। न हि परिच्छेदकत्वादिशक्तिर्यावत्स्वयं न ज्ञाता तावदात्मनः स्वप्रमातृत्वादिसंवेदनं न भवति येनानवस्था स्यात् / प्रमातृत्वादिस्वसंवेदनादेव तच्छक्तेरनुमानान्निराकांक्षस्य तत्राप्यनुपयोगादिति युक्तमुपयोगात्मकत्वसाधनमात्मनः॥ कर्तृरूपतया वित्तेरपरोक्षः स्वयं पुमान्। अप्रत्यक्षश्च कर्मत्वेनाप्रतीतेरितीतरे // 214 / / (प्रमाता और प्रमेयत्व शक्ति) किसी अन्य परिच्छेदकत्व शक्ति के द्वारा ही परिच्छेद्य होती है। अतः स्याद्वाद मत में भी अनवस्था दोष आता ही है। अन्यथा (यदि परिच्छेदकत्व और परिच्छेद्य शक्ति को जानने के लिये अन्य शक्तियों को स्वीकार नहीं करते हो तो) आदि की शक्ति का भेद (प्रमाता और प्रमेयत्व) भी प्रमातृत्व और प्रमेयत्व का कारण नहीं हो सकेगा। अर्थात् आत्मा की प्रमातृ और प्रमेयत्व दो शक्तियाँ प्रमातृ और प्रमेयत्व इन धर्मों की कारण नहीं हो सकती। ... उत्तर- जैनाचार्य कहते हैं स्याद्वाद सिद्धान्त के प्रति ऐसा तर्क करना उचित नहीं है- क्योंकि ज्ञाता की अभिलाषाओं के क्षय हो जाने से कहीं पर अवस्थान की सिद्धि हो जाती है। ऐसा नहीं है कि आदि की परिच्छेदकत्व और परिच्छेद्यत्व शक्ति जब तक अन्य के द्वारा स्वयं ज्ञात नहीं हुई है (जानी नहीं गई है) तब तक आत्मा के प्रमातृत्व और प्रमेयत्व आदि का ज्ञान ही नहीं होता है, जिससे अनवस्था दोष आता हो। “किन्तु जैसे अग्नि दाह परिणाम से अपने आपको जलाती है, वैसे ही आत्मा अपनी शक्ति से अपने को जानता है" अत: स्वसंवेदन से ही अपनी प्रमातृक आदि शक्तियों का अनुमान हो जाने से (वा अनुमान से) अभिलाषा शांत हो जाती हैं। अर्थात् आत्मा की सम्पूर्ण शक्तियाँ अतीन्द्रिय हैं- अत: उनका ज्ञान अनुमान से ही होता है। जिस ज्ञाता को शक्तियों को जानने की कांक्षा नहीं है उसको उन शक्तियों का अनुमान करना भी अनुपयोगी है। अथवा- शक्तियों के ज्ञान का यहाँ कोई उपयोग भी नहीं है- क्योंकि यहाँ कारक पक्ष है। क्योंकि आत्मा की उपयोगात्मकत्व (दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोग) शक्तियाँ युक्तियों से सिद्ध है। आत्मा का लक्षण उपयोगात्मक है, वह अनुमान तथा स्वसंवेदन प्रमाण से सिद्ध है- अन्य शक्ति को जानने से क्या प्रयोजन है। . इस प्रकार नैयायिक मत का खण्डन करके अब आचार्य मीमांसक मत पर विचार करते हैं। _कर्ता रूप से आत्मा का ज्ञान होने से आत्मा स्वयं अपरोक्ष (प्रत्यक्ष) है (परोक्ष नहीं है) परन्तु कर्म रूप से आत्मा की प्रतीति नहीं होती है- अतः आत्मा अप्रत्यक्ष भी है। ऐसा (इतरे) अन्य कोई (मीमांसक) कहते हैं।॥२१४॥