________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्त्तिक - 211 भेदाभेदात्मकत्वे तु कर्तृत्वस्य नरात्कथम्। न स्यात्तस्य परिच्छेद्ये नुः परिच्छेद्यता सतः // 217 // कथंचिद्भेदः कथंचिदभेदः कर्तृत्वस्य नरादिति चायुक्तमंशतो नरस्य प्रत्यक्षत्वप्रसंगात्। न हि प्रत्यक्षात्कर्तृत्वाद्येनांशेन नरस्याभेदस्तेन प्रत्यक्षत्वं शक्यं निषेधुं प्रत्यक्षादभिन्नस्याप्रत्यक्षत्वविरोधात्। प्रत्यक्षत्वं ततोऽशेन सिद्धं निद्भुतये कथम्। श्रोत्रियैः सर्वथा चात्मपरोक्षत्वोक्तदूषणम् // 218 // ननु चात्मनः कर्तृरूपता कथंचिदभिन्ना परिच्छिद्यते न तु प्रत्यक्षा कर्तृरूपता, कर्मतया प्रतीयमानत्वाभावात्तन्नात्मनोंऽशेनापि प्रत्यक्षत्वं सिद्ध्यति; यस्य निह्नवे प्रतीतिविरोध इति चेत् / कथमिदानी कर्तृता परिच्छिद्यते? तस्य कर्तृतयैवेति चेत्, तर्हि कर्तृता कर्ता न पुनरात्मा, तस्यास्ततो भेदात् / न ह्यन्यस्यां कर्तृतायां परिच्छिन्नायामन्यः कर्ता व्यवतिष्ठतेऽतिप्रसंगात्। नन्वात्मा धर्मी कर्ता कर्तृतास्य धर्मः कथंचित्तदात्मा, तत्रात्मा कर्ता प्रतीयत इति स एवार्थ: सिद्धो - यदि आत्मा से कर्तृत्व धर्म का कथंचित् भेदाभेद स्वीकार करते हैं तो उस कर्तृत्व के परिच्छेद्य हो जाने पर कर्तृत्व के साथ विद्यमान आत्मा की परिच्छेद्यता क्यों नहीं होगी, अवश्य होगी॥२१७॥ . स्याद्वादियों के सदृश यदि मीमांसक भी आत्मा से कर्तृता का कथञ्चित् धर्म-धर्मी भाव से भेद मानेंगे और द्रव्य रूप से कथंचित् अभेद मानेंगे तो उनके सिद्धान्त का अपघात होगा। (उनके सिद्धान्त से युक्त नहीं होगा) क्योंकि जिस अंश से आत्मा का कर्ता से अभेद माना है, उस अंश से आत्मा के विशद रूप से प्रत्यक्ष होने का प्रसंग आयेगा। प्रत्यक्ष प्रमाण के द्वारा ज्ञात कर्तृत्व धर्म से जिस अंश के द्वारा आत्मा का अभेद है, उस अंश से आत्मा के प्रत्यक्ष होने का निषेध करना शक्य नहीं है। क्योंकि प्रत्यक्ष प्रमाण के विषय हो चुके पदार्थ से अभिन्न मानी गई वस्तु का अप्रत्यक्षत्व विरुद्ध है। .. अतः किसी अंश के द्वारा प्रत्यक्ष सिद्ध आत्मा की प्रत्यक्षता क्रियावादी प्रभाकर मीमांसक के द्वारा कैसे लुप्त की जा सकती है। तथा आत्मा को परोक्ष मानने में उपर्युक्त दूषण आते हैं- अत: आत्मा सर्वथा परोक्ष नहीं है॥२१८॥ शंका- (मीमांसक) आत्मा का कर्तृत्व धर्म आत्मा से कथंचित् अभिन्न ही जाना जाता हैकिन्तु प्रत्यक्षरूप से नहीं। जैसे आत्मा का प्रत्यक्ष होना नहीं मानते हैं- वैसे ही कर्मरूप से प्रतीति होने का अभाव होने से आत्मा के कर्तृत्व अंशमात्र से भी प्रत्यक्षत्व सिद्ध नहीं होता है, जिससे कि छिपाने पर प्रतीति विरोध होवे। इस प्रकार मीमांसक की शंका का आचार्य उत्तर देते हैं- कि जिसके सिद्धान्त में कर्ता आत्मा प्रत्यक्ष नहीं है तो उस कर्त्तारूप आत्मा की परिच्छित्ति (ज्ञान) कैसे हो सकेगी? सर्वथा आत्मा को कर्मत्व नहीं मानने पर आत्मा के उस कर्तृत्व धर्म की प्रतीति कैसे भी नहीं हो सकेगी। मीमांसक कहता है कि आत्मा कर्मरूप नहीं है किन्तु कर्ता है- अतः उस आत्मा की कर्तृत्व रूप से जो प्रतीति होती है, वही कर्तृत्व की परिच्छित्ति है। जैनाचार्य कहते हैं- कि प्रभाकर के इस