________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 204 परिच्छित्तिस्तस्यैव प्रमितिस्तथात्मनः परिच्छित्तिः स्वप्रमितिः प्रतीतिबलादागता परिहर्तुमशक्या। तथा चैकस्य नानात्वं विरुद्धमपि सिद्ध्यति। न चतस्रो विधास्तेषां प्रमात्रादिप्ररूपणात् / / 207 // प्रमात्रादिप्रकाराश्चत्वारोऽप्यात्मनो भिन्नास्ततो नैकस्यानेकात्मकत्वं विरुद्धमपि सिद्ध्यतीति चेत् न, तस्य प्रकारांतरत्वप्रसंगात् / कर्तृत्वादात्मनः प्रमातृत्वेन व्यवस्थानात् न प्रकारांतरत्वमिति चेत् / केयं कर्तृता नामात्मनः? प्रमितेः समवायित्वमात्मनः कर्तृता यदि। तदा नास्य प्रमेयत्वं तन्निमित्तत्वहानितः // 208 // प्रमाणसहकारी हि प्रमेयोऽर्थः प्रमा प्रति। निमित्तकारणं प्रोक्तो नात्मैवं स्वप्रमां प्रति // 209 // पर पदार्थों को जानता है अतः परपदार्थों का ज्ञाता है- और उसी प्रकार अपने को भी जानता है इसलिये स्व का ज्ञाता भी है। जैसे घटादिक की प्रमिति में घटादिक के प्रमेयत्व है- उसी प्रकार आत्मा की परिच्छित्ति के समय आत्मा में भी प्रमेयत्व हो जाता है। जैसे घटादिक की परिच्छित्ति (जानना रूप क्रिया) उस घटादिक प्रमिति आत्मा में है, उसी प्रकार अपने को जानने रूप क्रिया की प्रमिति आत्मा में है- अतः आत्मा प्रमिति रूप भी है। अर्थात् आत्मा की ज्ञप्ति ही आत्मा की प्रमिति है। इस प्रकार की प्रतीति भी होती है। अतः प्रतीति के बल से आगत (सिद्ध) एक ही आत्मा में प्रमाणपन, प्रमातापन, प्रमेयत्व और प्रमिति का परिहार करना शक्य नहीं है। अर्थात् द्रव्यार्थिक नय से ये चारों एक आत्मा में स्थित रहते हैं। तथा एक आत्मा के विरुद्ध भी नानापना सिद्ध हो जाता है। अत: उनका प्रमाता, प्रमिति, प्रमाण और प्रमेय इन चार तत्त्व रूप से भेदकथन नहीं करना चाहिए। अर्थात् ये सर्वथा वास्तव रूप में, भिन्न-भिन्न नहीं हैं।२०७॥ ____प्रमाता, प्रमिति, प्रमाण और प्रमेय ये चारों आत्मा से भिन्न-भिन्न हैं। अत: एक आत्मा में विरुद्ध अनेकात्मकत्व सिद्ध नहीं होता है- ऐसा नहीं कहना चाहिए। क्योंकि ऐसा मानने पर आत्मा के प्रकारान्तरत्व का प्रसंग आयेगा। अर्थात् जब आत्मा प्रमाता, प्रमेय, प्रमाण और प्रमिति इन चारों रूप नहीं है, तो उसको न्यारा ही पाँचवाँ तत्त्व मानना पड़ेगा। आत्मा कर्ता है अतः प्रमाता रूप से व्यवस्थित होने से उसके प्रकारान्तर का प्रसंग नहीं आता है। अर्थात् कर्ता होने से आत्मा प्रमाता है- नैयायिक के ऐसा कहने पर जैनाचार्य कहते हैं कि आत्मा के उस कर्त्तापने का स्वरूप क्या है? __यदि प्रमिति के समवाय सम्बन्ध से आत्मा के. कर्त्तापन मानते हैं तो इस आत्मा के प्रमेयत्व नहीं हो सकता। क्योंकि तब निमित्त कारण का अभाव हो जाता है। प्रमिति क्रिया के प्रति जो अर्थ प्रमाण का सहकारी कारण होता है- उसको प्रमेय कहते हैं। परन्तु इस प्रकार नैयायिकों ने अपनी प्रमिति क्रिया के प्रति आत्मा को निमित्त कारण नहीं कहा है अतः नैयायिक के मतानुसार आत्मा प्रमेय कैसे हो सकता है? // 208-209 //