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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 205 प्रमीयमाणो ह्यर्थः प्रमेयः प्रमाणसहकारी प्रमित्युत्पत्तिं प्रति निमित्तकारणत्वादिति ब्रुवाणः कथमात्मनः स्वप्रमितिं प्रति समवायिनः प्रमातृतामात्मसात् कुर्वतः प्रमेयत्वमाचक्षीत विरोधात् / न चात्मा स्वप्रमा प्रति निमित्तकारणं समवायिकारणत्वोपगमात् / यदि पुनरात्मनः स्वप्रमितिं प्रति समवायित्वं निमित्तकारणत्वं चेष्यतेऽर्थप्रमितिं प्रति समवायिकारणत्वमेव तदा साधकतमत्वमप्यस्तु। तथा च स एव प्रमाता, स एव प्रमेयः स एव च प्रमाणमिति कुतः प्रमातृप्रमेयप्रमाणानां प्रकारांतरता नावतिष्ठेत्? कर्तृकारकात् करणस्य भेदानात्मनः प्रमाणत्वमिति चेत्, कर्मकारकं कर्तुः किमभिन्नं यतस्तस्य प्रमेयत्वमिति नात्मा स्वयं प्रमेयः। नरांतरप्रमेयत्वमनेनास्य निवारितम्। तस्यापि स्वप्रमेयत्वेऽन्यप्रमातृत्वकल्पनात् / / 210 // बाध्या केनानवस्था स्यात्स्वप्रमातृत्वकल्पने। यथोक्ताशेषदोषानुषंग: केन निवार्यते // 211 // प्रमाण के द्वारा जानने योग्य द्रव्य प्रमेय कहलाता है। वह द्रव्य प्रमिति (जानन क्रिया) की उत्पत्ति का निमित्त कारण होने से प्रमाण का सहकारी कारण है। इस प्रकार कहने वाले नैयायिक आत्मा को प्रमेय कैसे कह सकते हैं। क्योंकि अपनी प्रमिति के प्रति समवायी कारण स्वीकार करने से प्रमातापने को आत्मसात करने वाले आत्मा के प्रमेयत्व कैसे कह सकते हैं? क्योंकि इसमें विरोध आता है। तथा समवायीकारण होने से आत्मा स्वप्रमिति के निमित्त कारण नहीं है। __ यदि पुनः “आत्मा अपनी प्रमिति के प्रति समवायी कारण और निमित्त भी है तथा अन्य घट पटादि पदार्थों की प्रमिति के प्रति समवायी कारण ही है," ऐसा मानते हो तो आत्मा प्रमिति के प्रति साधकतम भी होता है- अतः आत्मा प्रमाता है, प्रमाण के द्वारा जानने योग्य है, इसलिये वह आत्मा प्रमेय भी है। वह आत्मा प्रमाण भी है- इस प्रकार प्रमाता, प्रमेय, प्रमाण में तत्त्वभेद नहीं होने से प्रमाण, प्रमाता और प्रमेय के प्रकारान्तर कैसे रह सकता है। अर्थात् तीनों में कथंचित् अभेद है। __कर्तृ कारक से करण कारक का सर्वथा भेद होने से आत्मा के प्रमाणत्व नहीं हो सकता- ऐसा कहने पर तो नैयायिक मत में कर्ता से कर्मकारक क्या अभिन्न है? जिससे उस आत्मा के प्रमेयत्व सिद्ध है। परन्तु आत्मा स्वयमेव प्रमेय नहीं हो सकता है। ___ . इस कथन से आत्मा के अन्य आत्मानन्तर से प्रमेयत्व होता है अर्थात् आत्मा स्वयं को नहीं जानता है- दूसरे प्रमाताओं के द्वारा जाना जाता है, इसका भी खण्डन कर दिया गया है। क्योंकि उस अन्य आत्मा को भी स्व को प्रमेय करने में अन्य प्रमाता की कल्पना करनी पड़ेगी। और उसको जानने के लिये दूसरे प्रमाता की कल्पना करनी पड़ेगी। अतः अनवस्था दोष का निवारण कैसे हो सकता है। - आत्मा स्वयं प्रमाता है और स्वयं प्रमेय भी है, ऐसा मानने पर भी उपर्युक्त सम्पूर्ण दोषों के प्रसंग का कौन निवारण कर सकता है। अर्थात् स्याद्वाद मत से अतिरिक्त सर्वथा एकान्तवादी के एक ही आत्मा में प्रमाता और प्रमेय की व्यवस्था नहीं हो सकती॥२१०-२११॥
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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