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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्त्तिक - 203 ' कशास्याहंप्रत्ययस्य विषय इति विचार्यते। पुरुषश्चेत् प्रमेयः प्रमाता न स्यात् / न हि स एव प्रमेयः, स एव प्रमाता, सकृदेकस्यैकज्ञानापेक्षया कर्मत्वकर्तृत्वयोर्विरोधात् / ततोऽन्यः कर्तेति चेन्न, एकत्र शरीरे अनेकात्मानभ्युपगमात् / तस्याप्यहंप्रत्ययविषयत्वेऽ परकर्तृपरिकल्पनानुषंगादनवस्थानादेकात्मज्ञानापेक्षायामात्मनः प्रमातृत्वानुपपत्तेश नान्यः कर्ता संभवति यतो न विरोधः। स्वस्मिन्नेव प्रमोत्पत्तिः स्वप्रमातृत्वमात्मनः / प्रमेयत्वमपि स्वस्य प्रमितिश्शेयमागता // 206 // यथा घटादौ प्रमितेरुत्पत्तिस्तत्प्रमातृत्वं पुरुषस्य, तथा स्वस्मिन्नेव तदुत्पत्तिः स्वप्रमातृत्वं, यथा च घटादेः प्रमितौ प्रमेयत्वं तस्यैव, तथात्मनः परिच्छित्तौ स्वस्यैव प्रमेयत्वम्, यथा घटादेः 'अहं' प्रत्यय को जानने वाले इस ज्ञान का विषय क्या है? इसका विचार करते हैं। यदि आत्मा 'अहं' का अनुभव करने वाले ज्ञान का विषय है तो वह आत्मा प्रमेय (जानने योग्य कर्म) हो जाता है, प्रमाता (जानने वाला कर्ता) नहीं हो सकता। नैयायिक मत में एक समय एक ज्ञान की अपेक्षा से आत्मा के प्रमिति क्रिया का कर्मपना (प्रमेय) और कर्त्तापना (प्रमाता) का विरोध होने से आत्मा ही कर्म (प्रमेय) और आत्मा ही कर्ता (ज्ञाता) नहीं हो सकता है। क्योंकि नैयायिक मतानुसार प्रमाण, प्रमिति, प्रमाता और प्रमेय ये चार भिन्न-भिन्न तत्त्व माने गये हैं। प्रमाता आदि भिन्न-भिन्न तत्त्व होने से प्रमाता (ज्ञाता) रूप कर्ता भिन्न ही है- ऐसा कहना भी उचित नहीं है। क्योंकि नैयायिकों ने एक शरीर में अनेक आत्माएं स्वीकार नहीं की हैं। यदि एक शरीर में दूसरी आत्मा मानेंगे तो उस आत्मा के भी 'अहं' इस प्रत्यय का विषय होने से प्रमेयपना प्राप्त होगा- अर्थात् वह आत्मा भी अहं प्रत्यय का विषय होने से प्रमेय होगा- प्रमाता नहीं। उस दूसरे प्रमाता रूप आत्मा को जानने वाले दूसरे कर्तारूप आत्मा की कल्पना का प्रसंग आने से अनवस्था दोष आयेगा। जिस समय आत्मा को स्वयं जान रहा है, उस एक आत्मा के अपने ज्ञान की अपेक्षा से प्रमाता पन की उत्पत्ति नहीं हो सकती (उस समय आत्मा ज्ञाता नहीं हो सकता) उस समय वह प्रमेय है। दूसरा कर्ता वहाँ संभव नहीं है, जो कर्ता हो जाये और विरोध न हो। अर्थात्- एक आत्मा में कर्तृत्व और कर्मत्व का परस्पर विरोध है। यह दोष नैयायिकों के बना ही रहेगा। कथंचित् भिन्न और कथंचित् अभिन्न मानने वाले स्याद्वाद दर्शन में स्वकीय आत्मा में ही अपनी प्रमितिउत्पत्ति होती है। अतः आत्मा स्वयं प्रमाण है। स्वयं अपनी प्रमिति रूप क्रिया का करने वाला होने से आत्मा के कर्तापना भी है। स्वयं अपने द्वारा जानने योग्य होने से आत्मा के प्रमेयपना भी है। तथा जानने रूप क्रिया आत्मा में ही होती है- अतः आत्मा प्रमिति रूप भी है। अतः यह सिद्ध हुआ कि आत्मा- प्रमाता, प्रमाण, प्रमेय और प्रमिति चारों रूप है॥२०६॥ जैसे घटादिक का विषय करने वाली प्रमिति का उत्पन्न हो जाना ही आत्मा का प्रमातृत्व है, उसी प्रकार अपने आप में ही अपनी प्रमिति का उत्पन्न हो जाना आत्मा का अपना प्रमातापना है। अर्थात् जैसे आत्मा घटादि
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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