SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 229
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्त्तिक - 196 प्रत्ययो नागृहीते ज्ञानाख्ये विशेषणे विशेष्ये चात्मनि जातूत्पद्यते, स्वमतविरोधात् / गृहीते तस्मिन्नुत्पद्यते इति चेत्, कुतस्तद्गृहीतिः? न तावत्स्वतः स्वसंवेदनानभ्युपगमात् / स्वसंविदिते ह्यात्मनि ज्ञाने च स्वतः सा प्रयुज्यते नान्यथा संतानांतरवत् / परतश्शेत्तदपि ज्ञानांतरं विशेष्यं नागृहीते ज्ञानत्वविशेषणे ग्रहीतुं शक्यमिति ज्ञानांतरात्तद्ग्रहणेन भाव्यमित्यनवस्थानात् कुतः प्रकृतप्रत्ययः? नन्वहंप्रत्ययोत्पत्तिरात्मज्ञप्तिर्निगद्यते। ज्ञानमेतदिति ज्ञानोत्पत्तिस्तज्ज्ञप्तिरेव च // 202 // ज्ञानवानहमित्येष प्रत्ययस्तावतोदिता। तज्ज्ञानावेदनेप्येवं नानवस्थेति केचन // 203 / ज्ञान स्व-पर प्रकाशक है यदि ज्ञान नामक विशेषण और आत्मा नामक विशेष्य के ग्रहण किये बिना ही विशिष्ट बुद्धि की उत्पत्ति मानेंगे तो स्वमत से विरोध आयेगा। क्योंकि नैयायिक दर्शन में विशेष्य और विशेषण को ग्रहण करके ही विशिष्ट बुद्धि उत्पन्न होती है, ऐसा स्वीकार किया है, उसका विरोध होगा। ___यदि कहो कि विशेषण-विशेष्य के ग्रहण करने पर ही विशिष्ट बुद्धि उत्पन्न होती है तो उस ज्ञान. रूप विशेषण का ग्रहण किससे होता है? ज्ञान का ग्रहण स्वत: तो हो नहीं सकता। क्योंकि नैयायिकों ने आत्मा और ज्ञान का स्वतः अपने को जानने वाला स्वसंवेदन प्रत्यक्ष स्वीकार नहीं किया है। यदि आत्मा और ज्ञान में स्वसंवेदन प्रत्यक्ष होता है, ऐसा मानते तब तो उन दोनों का स्वतः ग्रहण होना कह सकते थे, अन्यथा नहीं कह सकते। क्योंकि संतानान्तरों के समान, ज्ञान और आत्मा का ग्रहण नहीं होता है। जैसे देवदत्त के ज्ञान का (या आत्मा का) यज्ञदत्त प्रत्यक्ष नहीं कर सकता। ___यदि दूसरे ज्ञान से 'ज्ञान और आत्मा' का ज्ञान होना मानोगे तो वह दूसरा ज्ञान भी विशेष्य है और उसमें ज्ञानत्व विशेषण है। अतः दूसरा ज्ञान भी जब तक अपने ज्ञानत्व विशेषण को नहीं जानेगा तब तक प्रकृत ज्ञान विशेष्य को भी ग्रहण करने में समर्थ नहीं हो सकता। यदि दूसरे ज्ञान के द्वारा उस ज्ञानत्व विशेष्य को जानता है, ऐसा स्वीकार करेंगे तो अनवस्था दोष आता है। अत: विशेषण रूप पूर्व ज्ञान का ग्रहण कैसे हो सकेगा? शंका- अहं 'मैं, मैं' इस प्रकार के ज्ञान की उत्पत्ति ही आत्मज्ञप्ति कही जाती है और यह ज्ञान है, इस प्रकार ज्ञान की उत्पत्ति ज्ञानत्व विशेष की ज्ञप्ति है, इससे ज्ञान का ग्रहण हो जाता है। उतने मात्र से “मैं ज्ञानवान हूँ" इस प्रकार का यह विशिष्ट प्रत्यय उत्पन्न होता है। अत: ज्ञान का स्वतः वेदन न होने पर भी अनवस्था दोष नहीं आ सकता। ऐसा कोई (नैयायिक) कहता है॥२०२-२०३॥ भावार्थ- 'मैं हैं' और 'ज्ञान वाला हूँ इन दो ज्ञानों की उत्पत्ति हो जाने से ही आकांक्षा शांत हो जाती है। ज्ञापक पक्ष में अनवस्था दोष लगता है। परन्तु कारक पक्ष में पिता-पुत्र के समान अनवस्था हो जाना दोष नहीं है।
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy