________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक- 197 ज्ञानात्मविशेषणविशेष्यज्ञानाहितसंस्कारसामर्थ्यादेव ज्ञानवानहमिति प्रत्ययोत्पत्ते नवस्थेति केचिन्मन्यते तेऽपि नूनमनात्मज्ञा ज्ञाप्यज्ञापकताविदः। सर्वं हि ज्ञापकं ज्ञातं स्वयमन्यस्य वेदकम् // 204 // विशेषणविशेष्ययोर्ज्ञानं हि तयोपिकं तत्कथमज्ञातं तौ ज्ञापयेत् / कारकत्वे तदयुक्तमेव / तदिमे तयोनिमज्ञातमेव ज्ञापकं ब्रुवाणा न ज्ञाप्यज्ञापकभावविद इति सत्यमनात्मज्ञाः / स्यान्मतं / विशेषणस्य ज्ञानं न ज्ञापकं नापि कारकं लिंगवच्चक्षुरादिवच्च। किं तर्हि? ज्ञप्तिरूपं फलं / तच्च प्रमाणाज्जातं चेत्तावतैवाकांक्षाया निवृत्तिः फलपर्यंतत्वात्तस्या, विशेष्यज्ञानस्य ज्ञापकं तदित्यपि पूर्व में ज्ञान को विशेषण और आत्मा को विशेष्य समझ लिया था। उसके संस्कार आत्मा में स्थित रहते हैं। अत: उसः ज्ञान और आत्मरूप विशेषण-विशेष्य ज्ञान से उत्पन्न संस्कार के बल से ही 'मैं ज्ञानवान हूँ ऐसा निश्चयात्मक ज्ञान उत्पन्न होता है। इससे अनवस्था दोष नहीं आता है- ऐसा भी कोई (नैयायिक) मानते हैं। समाधान- जैनाचार्य कहते हैं कि ऐसा कहने वाले वे नैयायिक निश्चय से अनात्मज्ञ (आत्मा को नहीं जानने वाले) हैं। और वे ज्ञाप्यज्ञापक भाव को भी नहीं जानते हैं। क्योंकि सभी दार्शनिक मानते हैं कि जो ज्ञापक (जानने वाला) है, वह स्वयं का और अन्य पदार्थों का वेदक (ज्ञाता) अवश्य होता है।।२०४॥ ज्ञान रूप विशेषण के और आत्मस्वरूप विशेष्य के ज्ञान को ही उन ज्ञान और आत्मा का ज्ञापक माना गया है तो उन दोनों का वह ज्ञान स्वयं अज्ञात होकर विशेष्य (आत्मा) और विशेषण (ज्ञान) को कैसे बता सकता है? उनका निरूपण कैसे कर सकता है ? यदि इस ज्ञान को ज्ञापक पक्ष न मानकर कारक पक्ष स्वीकार करते हो तो ऐसा करना युक्तियों से रहित ही है। क्योंकि ज्ञान और ज्ञेय के प्रकरण में कारक पक्ष लेना उपयुक्त नहीं है। . धूम अग्नि का ज्ञापक हेतु है, वह उसका कारक हेतु नहीं है। धूम की कारक हेतु अग्नि स्वयं है, वह धूम की ज्ञापक नहीं है। अतः ज्ञापक हेतु कारक नहीं होता। ... जो नैयायिक विशेष्य और विशेषण को नहीं जानने वाले ज्ञान को भी ज्ञापक कहते हैं-वे ज्ञेयज्ञायक भाव को नहीं जानते हैं इसलिए वे वास्तव में अनात्मज्ञ हैं (आत्मा को नहीं जानते हैं)। नैयायिक कहता है कि विशेषण का ज्ञान ज्ञापक हेतु नहीं है और चक्षु आदि के समान वा लिंग के (पुण्य-पाप, आलोक आदि हेतु के) समान कारक हेतु भी नहीं है। जैनाचार्य कहते हैं कि वह विशेषण का ज्ञान क्या है? उस विशेषण ज्ञान का स्वरूप क्या है? उत्तर- ज्ञप्ति (ज्ञान) रूप फल ही विशेषण का ज्ञान है। अतः ज्ञप्ति रूप फल प्रमाण से ज्ञात नहीं है अपितु प्रमाण से उत्पन्न है। उस प्रमाण से वस्तु के ज्ञात हो जाने से आकांक्षा की निवृत्ति हो जाती है। जब तक फल प्राप्त नहीं होता है तब तक प्रमाण से जानने की आकांक्षा बनी रहती है। परन्तु ज्ञप्ति रूप फल की प्राप्ति हो जाने पर