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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक- 195 ज्ञानवानहमिति नात्मा प्रत्येति जडत्वैकांतरूपत्वाद् घटवत् / सर्वथा जडश स्यात् आत्मा ज्ञानवानहमिति प्रत्येता च स्याद्विरोधाभावादिति मा निर्णैषीस्तस्य तथोपपत्त्यसंभवात् / तथाहि ज्ञानं विशेषणं पूर्वं गृहीत्वात्मानमेव च। .. विशेष्यं जायते बुद्धिर्ज्ञानवानहमित्यसौ // 20 // तद्गृहीतिः स्वतो नास्ति रहितस्य स्वसंविदा। परतश्शानवस्थानादिति तत्प्रत्ययः कुतः॥२०१॥ येषां नागृहीतविशेषणा विशेष्ये बुद्धिरिति मतं श्वेताच्छ्रेते बुद्धिरिति वचनात्तेषां ज्ञानवानहमिति भावार्थ- वैशेषिकों के दर्शन में ज्ञान गुण और आत्मत्व जाति के संयोग से आत्मा ज्ञाता होता है, समवाय सम्बन्ध के पूर्व तो आत्मा जड़ स्वरूप ही रहता है। नैयायिक : “आत्मा सर्वथा जड़ स्वरूप है और 'मैं ज्ञानवान हूँ' ऐसा अनुभव भी करता है, इसमें विरोध का अभाव है" जैनाचार्य कहते हैं- ऐसा निर्णय करना उचित नहीं है- क्योंकि इस प्रकार का निर्णय करने की उपपत्ति की असंभवता है। अर्थात् जड़ात्मा ज्ञान गुण के समवाय से 'मैं ज्ञाता हूँ' ऐसी प्रतीति नहीं कर सकता। तथाहि __ आत्मस्वरूप विशेष्य को और ज्ञानस्वरूप विशेषण को पूर्व में ग्रहण करके ही 'मैं ज्ञानवान हूँ" ऐसी बुद्धि उत्पन्न होती है। उसमें ज्ञानरूप विशेषण का ग्रहण स्वतः नहीं हो सकता। क्योंकि वैशेषिक दर्शन में ज्ञान और आत्मा को स्वसंवेदन से रहित माना है। अतः स्वतः तो विशेषण रूप ज्ञान का और विशेष्य रूप आत्मा का ग्रहण नहीं हो सकता। यदि दूसरे के द्वारा आत्मा का ग्रहण होता है- ऐसा स्वीकार करते हैं तो अनवस्था दोष आता है। अतः जड़ स्वरूप आत्मा को 'मैं ज्ञानवान हूँ' ऐसा प्रत्यय (अनुभव) कैसे हो सकता है॥२०॥ जिनका (नैयायिकों का) यह मत है कि विशेषण को ग्रहण किये बिना विशेष्य में बुद्धि नहीं जाती है, उनके 'श्वेत वस्त्र हैं' यह बुद्धि श्वेत विशेषण को जानकर ही श्वेत वस्त्र रूप विशेष्य में प्रवृत्त होती है। उनके मत में 'मैं ज्ञानवान हूँ' ऐसी प्रतीति भी, ज्ञान नामक विशेषण को और आत्मरूप विशेष्य को ग्रहण किये बिना उत्पन्न नहीं हो सकती।
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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