________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक-१९४ दृष्टा न पुनस्तात्त्विकी। तथा चात्मनि ज्ञाताहमिति प्रतीतिः कथंचिच्चेतनात्मतां गमयति, तामंतरेणानुपपद्यमानत्वात् कलशादिवत्। न हि कलशादिरचेतनात्मको ज्ञाताहमिति प्रत्येति / चैतन्ययोगाभावादसौ न तथा प्रत्येतीति चेत्, चेतनस्यापि चैतन्ययोगाच्चेतनोऽहमिति प्रतिपत्तेर्निरस्तत्वात् / ननु च ज्ञानवानहमिति प्रत्ययादात्मज्ञानयोर्भेदोऽन्यथा धनवानिति प्रत्ययादपि धनतद्वतोर्भेदाभावानुषंगादिति कश्चित् तदसत्। ज्ञानवानहमित्येव प्रत्ययोऽपि न युज्यते। सर्वथैव जडस्यास्य पुंसोऽभिमनने तथा॥१९९।। है, वह भेद पुनः वास्तविक है। वास्तविक समानाधिकरण तो तादात्म्य सम्बन्ध में ही होता है। जैसे आत्मा ज्ञानी है। आत्मा और ज्ञान में कथंचित् लक्ष्य-लक्षण, संज्ञा, प्रयोजनादि अपेक्षा भेद कहा जाता है- परन्तु द्रव्यरूप से भेद नहीं है। तथा आत्मा में 'मैं ज्ञाता हूँ ऐसी प्रतीति कथंचित् उसे चेतनात्मक तो सिद्ध करती है। आत्मा चेतन स्वरूप है इसकी द्योतक है। क्योंकि आत्मा को चेतन स्वरूप माने बिना 'मैं ज्ञाता हूँ ऐसी प्रतीति (अनुभव) नहीं हो सकती। जैसे अचेतन स्वरूप घटादि में 'मैं ज्ञाता हूँ ऐसी ज्ञप्ति नहीं होती है। क्योंकि घंटादिक अचेतनात्मक हैं अत: 'मैं ज्ञाता हूँ इस प्रकार की प्रतीति घटादिक को नहीं होती है। नैयायिक : 'चैतन्य के सम्बन्ध का अभाव होने से घट, पट आदिक अपने को उस प्रकार की ज्ञातापने की प्रतीति नहीं करते हैं' इस प्रकार नैयायिक के कहने पर जैनाचार्य कहते हैं कि चेतन के भी चेतना का अयोग होने से 'मैं चेतन हूँ ऐसी प्रतीति का पूर्व में खण्डन किया है। अर्थात् चेतना का समवाय सम्बन्ध आत्मा में ही क्यों होता है, अन्य द्रव्यों में क्यों नहीं होता है- अतः जैसे चेतना का सम्बन्ध न होने से घट-पट आदि को अपना अनुभव नहीं है- क्योंकि वे स्वयं अचेतन हैं उसी प्रकार चेतना के समवाय सम्बन्ध के पूर्व आत्मा भी अचेतन है। इसलिए आत्मा को भी 'मैं ज्ञाता हूँ ऐसी ज्ञप्ति नहीं हो सकती। . कोई (नैयायिक) कहता है कि- 'मैं ज्ञानवान हूँ' इस प्रकार की ज्ञप्ति होने से तो आत्मा और ज्ञान में भेद प्रतीत होता है। अन्यथा (यदि ज्ञान और आत्मा में भेद नहीं माना जायेगा तो) 'मैं धनवान हूँ' इस प्रकार की प्रतीति से भी धन और धनवान में भेद के अभाव का प्रसंग आयेगा। जैनाचार्य कहते हैं कि- ऐसा कहना भी असत् (प्रशंसनीय नहीं) है- क्योंकि आत्मा को सर्वथा जड़ (अचेतन) मानने पर 'मैं ज्ञानवान हूँ' इस प्रकार का प्रत्यय (ज्ञान का अनुभव) होना युक्तिपूर्ण नहीं है। अर्थात् सर्वथा भेद में मतुप् प्रत्यय नहीं होता है- जैसे 'मैं पुद्गलवान्' ऐसा प्रत्यय नहीं होता है॥१९९॥ नैयायिक मतानुसार घट के समान आत्मा एकान्त से जड़ स्वरूप होने से 'मैं ज्ञानवान हूँ' ऐसा अनुभव नहीं कर सकता।