________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्त्तिक- 193 -प्रतीतिः शरणं तत्र केनाप्याश्रीयते यदि। तदा पुंसश्चिदात्मत्वं प्रसिद्धमविगानतः // 197 // ज्ञाताहमिति निर्णीतेः कथंचिच्चेतनात्मताम् / अंतरेण व्यवस्थानासंभवात् कलशादिवत् // 198 // . प्रतीतिविलोपो हि स्याद्वादिभिर्न क्षम्यते न पुनः प्रतीत्याश्रयणं / ततो निःप्रतिद्वन्द्वमुपयोगात्मकस्यात्मनः सिद्धेर्न हि जातुचित्स्वयमचेतनोऽहं चेतनायोगाच्चेतनोऽचेतने च मयि चेतनायाः समवाय इति प्रतीतिरस्ति ज्ञाताहमिति समानाधिकरणतया प्रतीतेः। भेदे तथा प्रतीतिरिति चेन्न / कथंचित्तादात्म्याभावे तददर्शनात् यष्टिः पुरुष इत्यादिप्रतीतिस्तु भेदे सत्युपचाराद् __ यदि किसी नैयायिक के द्वारा इसमें प्रतीति (में ज्ञाता हूँ, मैं द्रष्टा हूँ) इस प्रतीति की शरण ली जाती है तब तो “आत्मा चैतन्य स्वरूप है" यह प्रसिद्धि भी निर्दोष है। अर्थात् आत्मा चैतन्य स्वरूप है यह निर्दोष प्रतीति होती है॥१९७॥ 'मैं ज्ञाता हूँ' इस प्रकार के निर्णय की व्यवस्था कथंचित् आत्मा को चेतनात्मक स्वीकार किये बिना असंभव है। अर्थात् आत्मा को चेतन स्वरूप स्वीकार किये बिना “मैं ज्ञाता हूँ, मैं द्रष्टा हूँ, मैं सुखी हूँ, मैं दु:खी हूँ" इस प्रकार की प्रतीति का निर्णय नहीं हो सकता। जैसे घटादिक में 'मैं ज्ञाता हूँ' ऐसी प्रतीति नहीं होती है परन्तु आत्मा ही निर्णय कर रहा है कि “मैं ज्ञाता हूँ" // 198 // प्रतीति का लोप करना स्याद्वादियों को सहन नहीं हो सकता है। पुनः प्रतीति के अनुसार बाधा रहित उपयोग स्वरूप आत्मा की सिद्धि होती है। इस प्रकार की प्रतीति कभी भी नहीं होती कि 'मैं स्वयं अचेतन हैं, चेतना के संयोग से चेतन हैं अथवा मुझ अचेतन में चेतना का समवाय सम्बन्ध है किन्तु इसके विपरीत 'मैं चेतन हूँ' 'ज्ञाता हूँ' ऐसी प्रतीति होती है। 'ज्ञातृत्व' और 'अहं' मैं की प्रतीति का समान अधिकरण है। एक ही अधिकरण है अर्थात् चेतनत्व, ज्ञातृत्व और अहंत्व इन तीनों का अधिकरण एक ही है। ये तीनों एक आत्मा नामक अधिकरण में निवास करते हैं। नैयायिक : इस प्रकार समानाधिकरणत्व तो भिन्न दो पदार्थों में भी प्रतीत होता है जैसे फूल सुगन्धयुक्त है और कम्बल नीला है। इसमें फूल से सुगन्ध भिन्न है, कम्बल से नीलापन भिन्न है तथापि एकाधिकरण है, उसी प्रकार 'आत्मा ज्ञाता है' यह भेद अधिकरण प्रतीत हो रहा है। किन्तु ऐसा कहना उचित नहीं है- क्योंकि कथंचित् तादात्म्य के अभाव में (तादात्म्य सम्बन्ध के बिना) समानाधिकरणता नहीं देखी जाती है। 'पुष्प में सुगन्ध', 'कम्बल में नीलापन' सर्वथा भिन्न नहीं हैं- इनमें भी सुगन्ध का पुष्प के साथ और नीलेपन का कम्बल के साथ तादात्म्य सम्बन्ध है। यद्यपि क्वचित् भेद में भी एकाधिकरण की प्रतीति होती है जैसे यष्टिः पुरुषः लाठी वाले पुरुष को लाठी कहा जाता है वा रिक्शा वाले को. 'रिक्शा' कह दिया जाता है। परन्तु भेद में एकाधिकरण उपचार से (व्यवहार से) देखा जाता