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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक- 189 - पुंसि चैतन्यस्य समवायो योगः स च खादिष्वपि समानः, समवायस्य स्वयमविशिष्टस्यैकस्य प्रतिनियमहेत्वभावादात्मन्येव ज्ञानं समवेतं नाकाशादिग्विति विशेषाव्यवस्थितेः। मयि ज्ञानमपीहेदं प्रत्ययानुमितो नरि। ज्ञानस्य समवायोऽस्ति न खादिष्वित्ययुक्तिकम् / / 195 // यथेह कुंडे दधीति प्रत्ययान्न तत्कुंडादन्यत्र तद्दधिसंयोगः शक्यापादनस्तथेह मयि ज्ञानमितीहेदं प्रत्ययानात्मनोऽन्यत्र खादिषु ज्ञानसमवाय इत्ययुक्तिकमेव यौगस्य। खादयोऽपि हि किं नैव प्रतीयुस्तावके मते। ज्ञानमस्मास्विति क्वात्मा जडस्तेभ्यो विशेषभाक् // 196 / / खादयो ज्ञानमस्मास्विति प्रतीयंतु स्वयमचेतनत्वादात्मवत्। आत्मानो वा मैवं प्रतीयुस्तत पुरुष (आत्मा) में जो चैतन्य का समवाय सम्बन्ध है, वह आकाश आदि में भी समान है। क्योंकि विशेषता से रहित एक समवाय के स्वयं प्रतिनियम हेतु का अभाव होने से वह चैतन्य का समवाय सम्बन्ध आत्मा में ही हो- आकाश आदि में नहीं' ऐसी विशेष व्यवस्था नहीं हो सकती। भावार्थ- नैयायिक मत में वास्तव में एक ही समवाय सम्बन्ध है और वह चैतन्य का आत्मा के साथ सम्बन्ध करता है, आकाश आदि के साथ चैतन्य का सम्बन्ध नहीं कराता, इस नियम की व्यवस्था कैसे हो सकती है? (नैयायिक) 'यहाँ यह है' इस प्रकार की प्रतीति तो सम्बन्ध को सिद्ध करती है। 'मुझ में ज्ञान है' इस प्रकार के प्रत्यय (ज्ञान) से आत्मा में ही ज्ञान के समवाय का अनुमान किया जाता है- आकाश आदि में ज्ञान के समवाय का अनुमान नहीं किया जाता है। अतः आकाश आदि में ज्ञान नहीं है। जैनाचार्य कहते हैं कि नैयायिक का यह कथन युक्तिसंगत नहीं है॥१९५।। जिस प्रकार 'इस कुण्ड में दही है' ऐसी प्रतीति होने के कारण उस कुण्ड के अतिरिक्त अन्य स्थान में उस दही के संयोग के प्रसंग का आपादन करना शक्य नहीं है। अर्थात् कुण्ड से भिन्न स्थान में दही नहीं है ऐसा नहीं कह सकते- उसी प्रकार 'मुझ में ज्ञान है' इस प्रकार के (यहाँ यह है), इस सम्बन्ध के निरूपक प्रत्यय से (ज्ञान से) आत्मा से अतिरिक्त आकाश आदि में ज्ञान का समवाय सम्बन्ध नहीं है इस प्रकार यौग का कहना भी युक्तिसंगत नहीं है। क्योंकि- गुण, गुणी और समवाय का सर्वथा भेद मानने वाले नैयायिक के दर्शन में समवाय सम्बन्ध से 'हमारे में ज्ञान है' ऐसा आकाश आदि क्यों नहीं समझते हैं। आत्मा के समान आकाश आदि को भी 'मुझ में ज्ञान है' ऐसी प्रतीति होनी चाहिए। क्योंकि ज्ञान समवाय के पूर्व आत्मा और आकाश दोनों जड़ स्वरूप हैं- दोनों में कोई अन्तर नहीं है।।१९६।। ज्ञान समवाय सम्बन्ध के पहले आकाश और आत्मा दोनों जड़ स्वरूप हैं- तो क्या विशेषता है कि जिससे मुझ में ज्ञान है' यह प्रत्यय आत्मा में होता है और आकाश आदि में नहीं होता है।
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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