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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक-१८८ प्रत्यभिज्ञानं प्रवर्तते स्वावरणक्षयोपशमवशादिति व्यवतिष्ठते / तस्माच्च मृत्पर्यायाणामिवैकसंतानवर्तिनां. चित्पर्यायाणामपि तत्त्वतोऽन्वितत्वसिद्धेः सिद्धमात्मद्रव्यमुदाहरणस्य साध्यविकलतानुपपत्तेः। सिद्धोऽप्यात्मोपयोगात्मा यदि न स्यात्तदा कुतः। श्रेयोमार्गप्रजिज्ञासा खस्येवाचेतनत्वतः // 193 / / येषामात्मानुपयोगस्वभावस्तेषां नासौ श्रेयोमार्गजिज्ञासा वाचेतनत्वादाकाशवत् / नोपयोगस्वभावत्वं चेतनत्वं किंतु चैतन्ययोगतः, स चात्मनोऽस्तीत्यसिद्धमचेतनत्वं न साध्यसाधनायालमिति शंकामपनुदति चैतन्ययोगतस्तस्य चेतनत्वं यदीर्यते। खादीनामपि किं न स्यात्तद्योगस्याविशेषतः // 194 // हैं। जैसे मिट्टी की शिवक, स्थास, कोष, कुशूल और घट पर्याय में मृत्तिका उपादान होकर ओतप्रोत रहती है। उसी प्रकार आत्मा एकसंतानवर्ती सुख, दुःख, घटज्ञान, पटज्ञान आदि चैतन्य पर्यायों में वास्तव में अन्वित होकर रहता है। इस प्रकार आत्मद्रव्य के अन्वितपना सिद्ध हो जाने से आत्मद्रव्य अखण्ड सिद्ध होता है। अतः उदाहरण के साध्य-विकलता की अनुपपत्ति है। अर्थात् मिट्टी का उदाहरण साध्यविकल नहीं है यानी उसके साध्य से रहितपना सिद्ध नहीं होता है। . नित्य और अनेक पर्यायों में व्यापक हो रहे उपयोग (दर्शन और ज्ञान) स्वरूप आत्मतत्त्व की यदि सिद्धि नहीं है तो आकाश के समान अचेतन होने से आत्मा के श्रेयोमार्ग (मोक्षमार्ग) को जानने की अभिलाषा कैसे उत्पन्न हो सकती है॥१९३॥ जैसे अचेतनात्मक आकाश के मोक्षमार्ग को जानने की अभिलाषा उत्पन्न नहीं होती है- उसी प्रकार नैयायिक मतानुसार उपयोग रहित आत्मा के मोक्षमार्ग को जानने की अभिलाषा उत्पन्न नहीं हो सकती। आत्मा और चैतन्य का तादात्म्य सम्बन्ध है, समवाय सम्बन्ध नहीं जिनके (नैयायिक और वैशेषिक के) मत में आत्मा उपयोगात्मक नहीं है, उनके मत में आकाश के समान अचेतन होने से उस आत्मा के मोक्षमार्ग को जानने की अभिलाषा भी उत्पन्न नहीं हो सकेगी। उनके अनुसार आत्मा का चेतनपना उपयोग के साथ तादात्म्य सम्बन्ध रखने वाला नहीं है- अपितु चैतन्य गुण के समवाय सम्बन्ध से उसमें चेतनत्व है। अतः आत्मा में अचेतनत्व असिद्ध है। इसलिए जैनाचार्यों द्वारा कथित अचेतनत्व हेतु साध्य (मोक्षमार्ग की अभिलाषा के अभाव) को सिद्ध करने में समर्थ नहीं है। अतः असिद्ध हेत्वाभास है। इस प्रकार की शंका का निराकरण करते हुए आचार्य कहते हैं- . यदि चैतन्य के समवाय सम्बन्ध से आत्मा के चेतनत्व कहा जाता है, तो चेतन के समवाय सम्बन्ध से आकाश, काल आदि के भी चेतनत्व क्यों नहीं होगा? आकाश आदि के भी चैतन्य के योग से चेतनत्व होना चाहिए क्योंकि आत्मा और आकाश के साथ चैतन्य के समवाय में कोई विशेषता नहीं है॥१९४॥
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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