________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक-१९० एव खार्दिवदिति / जडात्मवादिमते सन्नपि ज्ञानमिहेदमिति प्रत्ययः प्रत्यात्मवेद्यो न ज्ञानस्यात्मनि समवायं नियमयति विशेषाभावात्। नन्विह पृथिव्यादिषु रूपादय इति प्रत्ययोऽपि न रूपादीनां पृथिव्यादिषु समवायं साधयेद्यथा खादिषु, तत्र वा सत्त्वं साधयेत् पृथिव्यादिष्विवेति न क्वचित्प्रत्ययविशेषात्कस्यचिद्व्यवस्था किंचित्साधर्म्यस्य सर्वत्र भावादिति चेत् / सत्यं / अयमपरोऽस्य दोषोऽस्तु, पृथिव्यादीनां रूपाद्यनात्मकत्वे खादिभ्यो विशिष्ट तया व्यवस्थापयितुमशक्तेः। आत्मा के समान स्वयं अचेतन होने से आकाश आदि को भी 'हमारे में ज्ञान है' ऐसा प्रत्यय (ज्ञान) होना चाहिए। अथवा आकाश आदि के समान आत्मा को भी यह प्रत्यय नहीं होना चाहिए कि 'मुझ में ज्ञान है' क्योंकि अचेतन की अपेक्षा दोनों समान हैं। स्वरूप से आत्मा को जड़ मानने वाले नैयायिक के मत में प्रत्येक आत्मा के द्वारा जानने योग्य 'मुझ में यह ज्ञान है' 'यहाँ यह है' इस प्रकार का सत् रूप ज्ञान भी आत्मा में ज्ञान समवाय का नियम नहीं करा सकता। क्योंकि आकाश, घट पट आदि जड़ पदार्थों से आत्मा में विशेषता का अभाव है। अर्थात् ज्ञान समवाय के पूर्व आकाश आदि और आत्मा समान रूप से जड़ हैं। इनमें कोई विशेषता नहीं है। नैयायिक कहता है कि इस प्रकार कहने पर तो “यहाँ पृथ्वी जल आदि में रूप, रस आदि हैं" इस प्रकार का प्रत्यय (ज्ञान) भी पृथ्वी आदि में रूप आदि के समवाय सम्बन्ध को सिद्ध नहीं करेगा। जैसे आकाश आदि द्रव्य में समवाय सम्बन्ध रूपादि का सम्बन्ध नहीं कराता है। अथवा- जैसे आकाशादि में समवाय रूप, रस आदि का सम्बन्ध नहीं करता है, उसी प्रकार पृथ्वी आदि में भी रूपादि के सत्त्व की सिद्धि नहीं हो सकेगी। किसी प्रत्यय विशेष से किसी की भी व्यवस्था नहीं होगी। क्योंकि किसी-न-किसी धर्म की अपेक्षा साधर्म्य का सर्वत्र सद्भाव पाया जाता है। जैनाचार्य कहते हैं- कि “पृथ्वी आदि में रूपादि का प्रत्यय नहीं होगा" यह कहना सर्वथा सत्य है, क्योंकि पृथ्वी आदि में रूपादिक का प्रत्यय है वह तादात्म्य सम्बन्ध से हैं, समवाय सम्बन्ध से नहीं है। जो पृथ्वी आदि में रूप आदिक का तादात्म्य सम्बन्ध नहीं मानता है- उसके यह दूसरा दोष भी लागू होता है कि जैसे "आत्मा में ही ज्ञान का समवाय सम्बन्ध है, आकाश आदि में नहीं, ऐसी व्यवस्था करना शक्य नहीं है, वैसे ही पृथ्वी आदि में समवाय सम्बन्ध से रूपादि है, आकाशादिक में नहीं" ऐसी व्यवस्था करने के लिए आकाश आदिकों से विशिष्टता रखने वाला नियम व्यवस्थापित करना शक्य नहीं है। क्योंकि रूपादि के समवाय सम्बन्ध के पूर्व, आकाश आदि और पृथ्वी आदि दोनों ही रूप आदि से रहित हैं। अतः समवाय सम्बन्ध से रूपादि पृथ्वी आदि में रहते हैं, ऐसा सिद्ध नहीं होता, परन्तु तादात्म्य सम्बन्ध से सिद्ध होता है।