________________ +12+ सम्यग्दर्शन से हो जाता है, वैसे ही पूर्ण ज्ञान भी पूर्ण चारित्र से प्रथम हो जाता है। १४वें गुणस्थान के अन्त में ही व्युपरतक्रियानिवृत्ति ध्यान के होने पर ही चारित्र पूर्ण कहलाता है। सम्यक् शब्द तीनों गुणों के साथ है। ____मोक्ष के सामान्य कारण तो और भी हैं पर विशेष कारण रत्नत्रय ही है। चार आराधना में तप भी चारित्र रूप है। तेरहवें गुणस्थान के प्रारम्भ में रत्नत्रय के पूर्ण हो जाने पर भी सहकारी कारणों के न होने से मुक्ति नहीं होने पाती है। किसी कार्य के कारणों का नियम कर देने पर भी शक्तिविशेष और विशिष्ट काल की अपेक्षा रही आती है। वह चारित्र की विशेष शक्ति अयोगी गुणस्थान के अन्त समय में पूर्ण होती है। नैयायिकों की मोक्षमार्ग-प्रक्रिया प्रशस्त नहीं है। संचित कर्मों का उपभोग करके ही नाश मानने का एकान्त उपयुक्त नहीं है। सांख्य और बौद्धों की मोक्षमार्ग-प्रक्रिया भी समीचीन नहीं है। दर्शन, ज्ञान और चारित्रगुण कथंचित् भिन्न-भिन्न हैं। इनमें सर्वथा अभेद नहीं है। इनके लक्षण और कार्य भिन्न-भिन्न हैं। पहिले गुणों के होने पर उत्तरगुण भाज्य होते हैं। उत्तर पर्याय की उत्पत्ति होने पर पूर्व पर्याय का कथंचित् नाश हो जाना इष्ट है। . पूर्व स्वभावों का त्याग, उत्तर स्वभावों का ग्रहण और स्थूलपने से ध्रुव रहने को परिणाम कहते हैं। कूटस्थ पदार्थ असत् हैं। उपादान कारण के होने पर भी सहकारी कारणों के अभाव में कार्य की उत्पत्ति नहीं हो पाती है। मोक्ष के कारण तीन हैं, अतः संसार के कारण भी तीन हैं। नैयायिक, सांख्य आदि स्वीकृत अकेला मिथ्याज्ञान ही संसार का कारण नहीं है। यदि मिथ्याज्ञान से ही संसार और सम्यग्ज्ञान से ही मोक्ष माना जावेगा तो सर्वज्ञदेव उपदेश नहीं दे सकेंगे। कायक्लेश, केशलुंचन आदि क्रियाओं में मुनियों को प्रशम, सुख प्राप्त होता है। असंयम और मिथ्यासंयम में अन्तर है। बंध के पाँच कारण-मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग भी सामान्य रूप से तीन में गर्भित हो जाते हैं। यहाँ आचार्यश्री ने प्रमाद और कषाय का अच्छा विवेचन किया हैं। __ आचार्यश्री ने बल देकर यह स्थापना की है कि जिस कार्य को जितनी सामग्री की आवश्यकता होती है, वह कार्य उतनी ही सामग्री से उत्पन्न होता है। यह विचार भी अनेकान्त पर आधारित है, सर्वथा एकान्त मानने पर नहीं बन सकता है। सम्यग्दर्शन आदि गुणों का परिणामी आत्मा से तादात्म्य सम्बन्ध है। यहाँ अनेकान्त मत के उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य का अच्छा विचार किया है। चित्रज्ञान, सामान्य-विशेष इन दष्टान्तों से अनेकान्त को पष्ट करते हुए सप्तभंगी का भी विचार गर्भित कर दिया है। सर्वथा क्षणिक और कूटस्थनित्य में क्रियाकारक व्यवस्था नहीं बन पाती है। ___ अनेकान्तवाद के बिना बंध, बंध का कारण और मोक्ष, मोक्ष का कारण इनकी व्यवस्था नहीं बनती है। संवेदनाद्वैत और पुरुषाद्वैत सिद्ध नहीं हो सकते हैं। वेदान्तवादियों की अविद्या और बौद्धों की संवृत्ति अवस्तुरूप है। अतः व्यवहार में भी प्रयोजक नहीं हैं। शून्यवाद और तत्त्वोपप्लववाद के अनुसार तो किसी तत्त्व की व्यवस्था ही नहीं हो सकती है और न तत्त्वों का खण्डन हो सकता है। ____ अनेकान्त में भी अनेकान्त है। प्रमाण की अर्पणा से अनेकान्त है और सुनय की अपेक्षा से एकान्त है। स्याद्वादियों द्वारा माना गया रत्नत्रय ही सहकारियों से युक्त होकर मोक्ष का साधक है। इस प्रकार अनेक मिथ्या मतों का निरसन कर अंत में आचार्यश्री आशीर्वादात्मक पद्य कहते हैं कि चारित्र गुण सभी बुद्धिमान् वादी-प्रतिवादियों को रत्नत्रय-मोक्षलक्ष्मी की प्राप्ति करा दे। आभार महर्षि विद्यानन्द की इस दुरवबोध रचना का अनुवाद पूज्य गणिनी आर्यिका 105 श्री सुपार्श्वमती माताजी ने अपनी अभीक्ष्ण ज्ञानाराधना और उसके फलस्वरूप प्रकट हुए क्षयोपशम से सम्यक् रीत्या सम्पन्न किया