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________________ +11 प्रमाण, प्रमाता, प्रमेय और प्रमिति ये चार स्वतंत्र तत्त्व नहीं हैं। प्रमाता भी प्रमेय हो जाता है और प्रमाण भी प्रमेय तथा प्रमितिरूप है। अपनी आत्मा का स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से ज्ञान हो जाता है। ज्ञान और आत्मा सभी प्रकारों से परोक्ष नहीं है। ज्ञान के परोक्ष होने पर अर्थ का प्रत्यक्ष होना नहीं बन सकेगा, सर्व ही मिथ्या या समीचीन ज्ञान अपने स्वरूप की प्रमिति करने में प्रत्यक्ष प्रमाणरूप हैं। आत्मा उपयोगस्वरूप है, इस अपेक्षा प्रत्यक्ष है तथा प्रतिक्षण नवीन, नवीन परिणाम, असंख्यातप्रदेशीपना आदि धर्मों से छास्थों के ज्ञेय नहीं है अतः परोक्ष भी है। - उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य रूप परिणाम हुए बिना पदार्थों का सत्त्व असम्भव है। यदि अन्वय बना रहे तो नाश होना बहुत अच्छा गुण है। संसार के कारण मोह आदि कर्मों के नष्ट हो जाने पर जीव का संसार समाप्त हो जाता है। संसार का समापन करने वाले जीव ने पूर्व में मोक्षमार्ग को जानने की इच्छा की थी और अब वह जीव सिद्धावस्था में अनन्त काल तक रहेगा। यह व्यवस्था अनेकान्त-स्याद्वाद सिद्धान्त में ही सम्भव है। जिज्ञासा, संशय, प्रयोजन आदि से विशिष्ट शिष्य को ही उपदेश दिया जाता है। उपदेश सुनने वाले के जिज्ञासा का होना अत्यावश्यक है। . प्रश्न है कि आचार्य ने मोक्ष का कथन न करके मोक्षमार्ग का कथन पहले क्यों किया? इसका समाधान करते हुए आचार्य कहते हैं कि मोक्ष के सम्बन्ध में किसी का विवाद नहीं है परन्तु मोक्षमार्ग के सम्बन्ध में विवाद है। कोई भक्ति से, कोई ज्ञान से और कोई कर्म से इस प्रकार एकान्त से मुक्ति मानते हैं। अतः शिष्य को मोक्षमार्ग की जिज्ञासा हुई है। शून्यवादी या उपप्लववादी मोक्ष को सर्वथा स्वीकार नहीं करते हैं। मोक्ष आगम द्वारा भी जाना जाता है। निर्दोष वक्ता से कहा गया आगम प्रमाण है। अनुमानप्रमाण से भी मोक्ष जाना जा सकता है। अत: निकट भव्य जीव के मोक्षमार्ग की जिज्ञासा होने पर आचार्य सूत्र कहते हैं- 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः।' प्रथम सूत्र के वार्तिकों का सार-संक्षेप - सबसे पहले सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का निर्दोष लक्षण करके मोक्ष और मार्ग का स्वरूप बताया है। नगरों तक पहुँचने के मार्ग उपमेय हैं और मोक्षमार्ग उपमान है। , आचार्यश्री ने परिणाम और परिणामी के भेद की विवक्षा होने पर दर्शन, ज्ञान आदि शब्दों को व्याकरण द्वारा करण, कर्ता और भाव में सिद्ध किया है। शक्ति शक्तिमान से अभिन्न रहती है। नैयायिकों द्वारा मान्य सहकारी कारणों का निकट आ जाना रूप शक्ति नहीं है। वह शक्ति द्रव्य, गुण, कर्म या इनके सम्बन्ध स्वरूप भी नहीं है। वैशेषिकों द्वारा माने गये अयुतसिद्ध पदार्थों का समवाय और युतसिद्ध पदार्थों का संयोग ठीक नहीं बनता है। शक्ति और शक्तिमान् का कथंचित् तादात्म्य सम्बन्ध है। ज्ञान को सर्वथा परोक्ष मानने वाले मीमांसकों का खण्डन कर आचार्यश्री ने स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से ज्ञान को कथंचित् प्रत्यक्ष करना सिद्ध किया है। लब्धिरूप भावेन्द्रियाँ साधारण संसारी जीवों के प्रत्यक्ष ज्ञान का विषय नहीं हैं। अतः परोक्ष हैं। चारित्र शब्द को सिद्ध करके कारकों की व्यवस्था को विवक्षा के आधीन स्थित किया है। यहाँ बौद्धों और नैयायिकों के आग्रह का खण्डन कर वस्तु को अनेक कारकपना व्यवस्थित कर दिया है। सम्पूर्ण वस्तुएँ सांश हैं। एक परमाणु में भी स्वभाव, गुण और पर्यायों की अपेक्षा अनेक कारकपना है। परमाणु के अनेक धर्म उसके अंश हैं। जो अंशों से रहित है, वह अर्थक्रियाकारी न होने से अवस्तु है। अनन्तर, आचार्यश्री ने सम्यग्दर्शन की पूज्यता बतलाते हुए द्वन्द्व समास में पहले दर्शन का प्रयोग सिद्ध किया है। ज्ञान में समीचीनता सम्यग्दर्शन से ही आती है, बाद में भले ही वह ज्ञान अनेक पुरुषार्थों को सिद्ध करा दे। क्षायिक सम्यक्त्व के होने पर ही क्षायिक ज्ञान हो सकता है। भविष्य में होने वाले. अनेक भवों का ध्वंस क्षायिक
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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