________________ +10+ है, मूर्त है, ऐसे पौगलिक सूत्रों का ग्रथन गणधरदेव ने द्वादशा में किया है। ग्रहीता शिष्यों के बिना भगवान की दिव्यर्वान भी नहीं खिरती है। प्रतिपादकों की इच्छा होने पर सूत्र या अन्य आर्षग्रन्थ प्रवर्तित होते हैं। हिंसा आदि / पापों की प्रेरणा करने वाले ग्रन्थ अप्रामाणिक हैं। अत: ज्ञानी वक्ता और विनयी श्रोताओं के होने पर सद्शास्त्रों की रचना होती है। आचार्यश्री ने सूत्र को आगम और अनुमानरूप सिद्ध करते हुए अपौरुषेय वेद का खण्डन किया है। वीतराग, सर्वज्ञ और हितोपदेशक वक्ता का निर्णय कर लेने पर उसके कथनों की प्रामाणिकता स्वतः सिद्ध होती है। . __ मीमांसकों ने सर्वज्ञ को स्वीकार नहीं किया है, उनके लिए सर्वज्ञसिद्धि सूक्ष्म आदिक अर्थों के उपदेश. करने की अपेक्षा की गई है। प्रत्यक्ष आदि छह प्रमाणों से सर्व पदार्थों के जानने वाले को सर्वज्ञ नहीं कहते हैं किन्तु केवलज्ञान से एक क्षण में ही त्रिकाल-त्रिलोक के पदार्थों को जानने वाला सर्वज्ञ है। सर्वज्ञता घातिया कर्मों के क्षय से उत्पन्न होती है। कर्मों का क्षय होने पर अर्हन्त देव स्वभाव से ही सब पदार्थों को जान लेते हैं, उन्हें प्रयत्न नहीं करना पड़ता। दर्पण बिना इच्छा और प्रयत्न के प्रतिबिम्ब ले लेता है। जिनेन्द्रदेव तीर्थंकर प्रकृति का उदय होने पर मोक्षमार्ग का उपदेश करते हैं। इस प्रकरण में अकेले ज्ञान से ही मोक्ष मानने वाले नैयायिकों और सांख्यों आदि का खण्डन कर रत्नत्रय से मुक्ति होना सिद्ध किया है। ज्ञान के समवाय सम्बन्ध से आत्मा ज्ञानी नहीं हो सकता है। भिन्न पड़ा हुआ समवाय सम्बन्ध भी किसी गुणी में किसी विशेष गुण को सम्बन्धित कराने का नियामक नहीं हो सकता है। नैयायिकों के ईश्वर की भाँति बुद्ध भी मुक्ति नहीं पा सकता है, न मोक्षमार्ग का उपदेश दे सकता है। निरन्वय क्षणिक अवस्था में सन्तान भी नहीं बन पाती है। अन्वय सहित परिणाम मानने पर ही पदार्थों में अर्थक्रिया बन सकती है। वचन बोलने में विवक्षा कारण नहीं है। तीर्थंकरों की दिव्य ध्वनि बिना विवक्षा ही खिरती है। चित्राद्वैत मत में भी मोक्ष और मोक्ष का उपदेश नहीं बनता है। विज्ञानाद्वैत और ब्रह्माद्वैत की भी सिद्धि नहीं हो सकती है। चार्वाकों द्वारा मान्य पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु से उत्पन्न आत्मा द्रव्य नहीं है। आत्मा पुद्गलनिर्मित होता तो बाह्य इन्द्रियों से जाना जाता किन्तु आत्मा का स्वसंवेदन प्रत्यक्ष हो रहा है। आत्मा का लक्षण भिन्न है पुद्गल का लक्षण भिन्न है- पृथ्वी आदि भौतिक तत्त्व आत्मा को प्रकट करने वाले भी सिद्ध नहीं हैं। उपादान कारण माने बिना कारक पक्ष और ज्ञापक पक्ष नहीं चलते हैं। इन्द्रियों से चैतन्यशक्ति उत्पन्न नहीं होती। शरीर का गुण ज्ञान नहीं है। अन्यथा मृत देह में भी ज्ञान, सुख, दु:ख आदि का प्रसंग आयेगा। मैं सुखी हूँ, गुणी हूँ,.कर्ता हूँ इत्यादिक प्रतीतियों से आत्मा स्वतंत्र तत्त्व सिद्ध है जो अनादि काल से अनन्त काल तक रहने वाला है। चार्वाक की मान्यता ठीक नहीं है। __ आत्मा द्रव्यार्थिक नय से नित्य है और पर्यायार्थिक नय से अनित्य है। इस कारण आत्मा नित्यानित्यात्मक हैं। बौद्धों का आत्मा को क्षणिक विज्ञानरूप मानना भी ठीक नहीं है। वस्तु सामान्य विशेषात्मक या भेदाभेदात्मक है। एक आत्मद्रव्य क्रमभावी और सहभावी पर्यायों में व्याप्त होकर रहता है। आत्मा न कभी अपने गुणपर्यायों का त्याग करता है न अन्य द्रव्य के गुणपर्यायों का कभी स्पर्श ही करता है। बौद्धों के यहाँ इसकी व्यवस्थापक कोई विधि नहीं है। अवस्तुभूत वासनाओं से कोई कार्य नहीं हो सकता है। बौद्धों द्वारा मान्य एकरून्तानपना असिद्ध है। उपयोग स्वरूप आत्मद्रव्य के ही मोक्षमार्ग को जानने की इच्छा होना सम्भव है। प्रामाणिक प्रतीतियों से आत्मा को ही चेतनपना सिद्ध है। आत्मा में रहने वाला ज्ञान स्वयं को जान लेता है। उसको जानने के लिए अन्य ज्ञान अपेक्षित नहीं है। इस तथ्य को आचार्यश्री ने अनेक युक्तियों से पुष्ट किया है।