________________ लिखे गये हैं। पृथक् लिखे जाने के कारण ही टिप्पण सम्बन्धी वह सामग्री कहीं खो गई है। आगामी खण्डों के पाठ का मिलान करने में भी पण्डितजी की इस पाण्डुलिपि का उपयोग अवश्य करूंगा। मैं स्व. पूज्य पण्डितजी का पुण्यस्मरण करता हुआ उस विशिष्ट प्रतिभा को सश्रद्ध नमन करता हूँ। प्रस्तुत संस्करण की आवश्यकता और इसकी विशेषताएं पूर्व मुद्रित प्रतियों में एक तो केवल मूल-मूल है जिससे संस्कृत का अनभ्यासी कुछ भी लाभ नहीं उठा सकता। दूसरी पं. माणिकचन्दजी की हिन्दी टीका समन्वित विशालकाय टीका है, जिसमें मूल के साथ विशद व्याख्या है। इस टीका के प्रकाशन के साथ ही इस ग्रन्थ का प्रचलन स्वाध्याय में हुआ है। किन्तु यहाँ भी संस्कृत का अनभ्यासी यह नहीं समझता कि मूल का अनुवाद कौनसा है और इसकी व्याख्या कौनसी है? एक तो प्रमेय भी जटिल, दूसरे पण्डितजी की संस्कृतनिष्ठ शब्दावली भी कहीं-कहीं दुर्बोध हो गई है। अत: मूलानुगामी अनुवाद की आवश्यकता ही इस संस्करण के उद्भव का प्रधान कारण है। उसी की पूर्ति का यह संस्करण एक प्रयत्न है। प्रस्तुत संस्करण में आचार्य विद्यानन्द विरचित तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकालंकार नामक संस्कृत टीका को परम पूज्य गणिनी आर्यिका 105 श्री सुपार्श्वमती माताजी कृत मूलानुगामी हिन्दी अनुवाद सहित प्रकाशित किया गया है। प्रत्येक पृष्ठ के अर्धभाग/चतुर्थभाग में ऊपर मूल संस्कृतवृत्ति है और अधोभाग में उसी का हिन्दी अनुवाद है। जहाँ तहाँ विशेष स्पष्ट करने के लिए स्वतंत्र रूप से भावार्थ भी आर्यिकाश्री ने लिखा है। * ग्रन्थ के प्रारम्भ में अनुवादकीं की प्रस्तावना भी है। प्रस्तावना में महर्षि विद्यानन्द और पात्रकेसरी स्वामी, शिलालेख, ग्रन्थकर्ता का जीवन, समय और उनकी रचनाओं पर प्रकाश डाला गया है। संघस्थ ब्रह्मचारिणी बहिन डॉ. प्रमिला जैन का आलेख 'न्याय ग्रन्थों की रचना का हेतु' भी प्रारम्भिक पृष्ठों में संकलित है। * मूलग्रन्थ में अनुच्छेद व विषय-विभाजन भी किया गया है। अनुवाद में यथासम्भव शीर्षक भी दिये गये हैं जिससे विषय को ग्रहण करने में अवश्य सहायता मिलेगी। ..' * ग्रन्थ के अन्त में परिशिष्ट भी हैं जिनमें पारिभाषिक लक्षणावली, अन्य दर्शनों का संक्षिप्त परिचय, स्रोत सहित उद्धरणों की सूची और श्लोकानुक्रमणिका संकलित हैं। प्रस्तुत खण्ड का प्रमेय - इस खण्ड में 'तत्त्वार्थसूत्र' के प्रथम अध्याय के प्रथम आहिक तक का प्रकरण आया है। आचार्यश्री ने ग्रन्थ के प्रारम्भ में निर्विघ्न रूप से शास्त्र की परिसमाप्ति और उपकार-स्मरण के निमित्त भगवान वर्धमान स्वामी का ध्यान करते हुए मंगलाचरण रूप प्रतिज्ञा श्लोक कहा है। फिर परापर गुरुओं का ध्यान करना आवश्यक बताया है। इस पर अच्छा खण्डन-मण्डन करके ग्रन्थ की सिद्धि के कारण गरुओं का ध्यान करते हए सत्र, अध्याय आदि का लक्षण लिखा है। अनन्तर 'श्लोकवार्तिक' ग्रन्थ को आम्नाय के अनुसार आया हुआ बतलाकर साक्षात्फल ज्ञान की प्राप्ति और परम्पराफल कर्मों का नाश करने में उपयोगी सिद्ध किया है। - जिनेन्द्र भगवान ने सूत्र अर्थ रूप से कहा है। उसी आम्नाय से आये हुए सूत्र का गृद्धपिच्छाचार्य ने प्रतिपादन किया है। यह सूत्र प्रमेय की अपेक्षा अनादि है किन्तु पायदृष्टि से सादि है। शब्द पुद्गल की पर्याय है, अव्यापक . . मंशा