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________________ *8* संस्कृत टिप्पणों के साथ इसके 16 पृष्ठ छपे भी पर आगे मुद्रण नहीं हो पाया। पण्डितजी कालधर्म को प्राप्त हुए। इस सम्बन्ध में मेरा पत्रव्यवहार पूज्य पण्डितजी के साले, स्वाध्यायी अग्रज प्रा. रतिकान्त शहा जैन (कोरेगाव, सातारा) से हुआ। उन्होंने सूचित किया कि पण्डितजी के निधन के बाद पण्डितजी द्वारा तैयार पाण्डुलिपि सम्बन्धित सभी सामग्री के साथ हस्तिनापुर भिजवाई गई थी, परन्तु वहाँ भी प्रकाशन की व्यवस्था नहीं हो सकी। पाण्डुलिपि लौट आई है, आप कहें तो मैं पाण्डुलिपि आपको भिजवा दूं। मैंने उन्हें पाण्डुलिपि भेज देने को लिखा। उन्होंने पाण्डुलिपि भिजवा दी। मैं उनका आभारी हूँ। पाण्डुलिपि पण्डितजी ने स्वयं अपने हाथ से लिखी है। पर उन्होंने संधिकृत पदों का विच्छेद कर लिखने की शैली अपनाई है क्योंकि उन्हें अलग-अलग पदों पर संस्कृत में टिप्पण लिखने थे और वे तभी लिखे जा सकते थे जब पद अलग-अलग हों। प्रत्येक पद पर संख्यांक और नीचे टिप्पण। पाण्डुलिपि और दो छपे फर्मों के अलावा मेरे पास कोई सामग्री नहीं आई थी अतः मैंने फिर शहा सा. को लिखा कि पण्डितजी ने किन प्रतियों के आधार पर यह पाण्डुलिपि तैयार की थी-इस सम्बन्ध में कोई जानकारी हो तो अवगत करावें। उनका उत्तर मिला- “उन्होंने (पं. मोतीचन्दजी कोठारी) किन प्रतियों के आधार से संशोधन किया, यह समस्या तो अनसुलझी ही रहने वाली है। पं. कौन्देयजी की टीका सहित जो 7 खण्ड हैं, वे तो उनके पास थे ही, साथ ही और दो एक अन्य मुद्रित ग्रन्थ भी थे। और एक विशेष बात यह है कि वे पूना के भाण्डारकर रिसर्च इन्स्टीट्यूट में जाकर वहाँ की श्लोकवार्तिक की प्रतियों का वाचन करते थे। वे उस समय पूना में ही रह कर हर रोज सुबह 11 से संध्या 5 तक उसी इन्स्टीट्यूट में बैठते थे। करीब-करीब 2, 22 वर्ष उनका यह क्रम जारी था। इस पाण्डुलिपि के साथ और भी कुछ कागज हस्तिनापुर में पूज्य आर्यिकाश्री ज्ञानमतीजी को दिये थे या नहीं, इस बारे में कोई जानकारी नहीं है। उनके घर में भी इस सन्दर्भ का कोई साहित्य ढूंढ़ने पर भी नहीं मिला। उनकी इस पाण्डुलिपि के साथ एक छपा हुआ फार्म मैंने भेज दिया था, उस पर से कोई अनुमान किया जा सकता है या नहीं? उनकी तो इस पाठसंशोधन के बारे में बहुत सी अपेक्षाएँ थीं, इसीलिए तो वे उसके प्रकाशन के लिए चिन्तित थे।" ___मैंने पण्डितजी की पाण्डुलिपि से इस खण्ड में प्रकाशित संस्कृत मूल का मिलान किया है। पाण्डुलिपि नीली स्याही में फुलस्केप लाइनदार कागज पर हाशिया छोड़ पृष्ठ के एक ओर लिखी गई है। हाशिये की ओर छोटे अक्षरों में शीर्षक देने का भी पुरुषार्थ पण्डितजी ने किया है पर बाद में उनमें से आधे से अधिक काट दिये गये हैं। प्रकृत खण्ड की पाण्डुलिपि के प्रारम्भ में 'श्रीसमन्तभद्रादिभ्यो नमः' और अन्त में 'श्रीचन्द्रप्रभजिनाय नमः' लिखा है। पण्डितजी ने पाण्डुलिपि में कहीं भी पाठभेद का संकेत नहीं किया है। इस खण्ड की पाण्डुलिपि 97 पृष्ठों की है। सार्थक पाठभेद नगण्य हैं। हाँ, प्रथम आह्निक के श्लोक 112 के बाद मुद्रित प्रतियों में जहाँ यह गद्य मिलता “तत्र कुतो भवन् भवेऽत्यन्तं बंध: केन निवर्त्यते, येन पंचविधो मोक्षमार्गः स्यादित्यधीयते" वहीं पण्डितजी की पाण्डुलिपि में यह श्लोकबद्ध है कुतो भवन् भवेऽत्यन्तं बन्धः केन निवर्त्यते। येन पञ्चविधो मोक्षमार्गः स्यादित्यधीयते // 113 // ___ इस श्लोक से पाण्डुलिपि में प्रथम आह्निक की श्लोक संख्या 163 हो गई है जबकि मुद्रित प्रतियों में यह संख्या 162 ही है। छपे फर्मों में पण्डितजी के लिखे टिप्पण निश्चय ही उपयोगी हैं पर वे पाण्डुलिपि में नहीं
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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